Friday, 31 January 2014

सूरज की कोख में झांकने की कोशिश



ब्रिटेन में मौसम विभाग जल्दी ही अंतरिक्ष के मौसम के बारे में दैनिक पूर्वानुमान जारी करने वाला है.

चौबीसों घंटे उपलब्ध रहने वाली इस सेवा का उद्देश्य संचार उद्योगों और सरकारी विभागों की मदद करना है ताकि उन्हें सौर मंडल में उठने वाले उन तूफानों का पूर्वानुमान हो सके जो उपग्रहों, रेडियो संचार और विद्युत ग्रिडों को प्रभावित कर सकते हैं.

इस बारे में पहला पूर्वानुमान अगले वसंत तक आने की संभावना है. उद्योग विभाग अगले तीन सालों के दौरान इस योजना के लिए 46 लाख पाउंड देगा.
मौसम विभाग अमरीकी राष्ट्रीय सामुद्रिक एवं पर्यावरणीय विभाग के साथ मिलकर अंतरिक्ष मौसम का पूर्वानुमान लगाने के बेहतर साधनों को विकसित करने की कोशिश करेगा.
इस योजना में ब्रितानी भूगर्भ विज्ञान, बाथ विश्वविद्यालय और आरएएल स्पेस सहयोगी हैं.
अंतरिक्ष का मौसम सूरज से निकलने वाले आवेशित कणों से संचालित होता है.

मौसम का पूर्वानुमान

सौर तूफ़ान इस हद तक शक्तिशाली होते हैं कि वे उपग्रह के संवेदनशील भागों को नुकसान पहुंचा सकते हैं और इनका प्रवाह इस कदर मजबूत होता है कि धरती के पावर ग्रिडों पर गहरा प्रभाव छोड़ सकते हैं.
सौर चक्रवातों के कारण साल 1989 में कनाडा के क्यूबेक में एक बड़े हिस्से में बत्ती गुल हो गई थी.
सौर उत्सर्जन जब सबसे तेज़ गति से होता है तब सूर्य की सक्रियता प्रत्येक 11 साल पर अपने चरम पर होती है. अभी यह अपने "अधिकतम सौर" वाले चरण में है.
मौसम विभाग में अंतरिक्ष मौसम विभाग के प्रमुख मार्क गिब्स ने बताया, "अंतरिक्ष मौसम के बारे में अभी हमारी जानकारी सीमित है, मगर इसके बारे में हमारी समझ तेज़ी से बढ़ रही है."

पूर्वानुमान व्यवस्था

उन्होंने कहा कि इस योजना का उद्देश्य अंतरिक्ष के मौसम का पूर्वानुमान लगाने के लिए बेहतर मॉडल का विकास को बढ़ावा देना और अंतरिक्ष मौसम से जुड़ी जानकारियों का प्रभावपूर्ण इस्तेमाल करने के लिए पूर्वानुमान व्यवस्था को बेहतर बनाना है.
गिब्स ने आगे बताया, "मौसम विभाग पिछले दो सालों से अंतरिक्ष मौसम के पूर्वानुमान की क्षमता विकसित करने की कोशिश कर रहा है. इस निवेश से यह कोशिश कामयाब होगी."
उन्होंने कहा, "इसकी सफलता के बाद विभाग अंतरिक्ष के मौसम के बारे में सटीक पूर्वानुमान और चेतावनी जारी कर सकेगा ताकि जिन तकनीक आधारित सेवाओं पर हम पूरी तरह निर्भर करते हैं उस पर असर कम से कम हो."
राष्ट्रीय ग्रिड के लिए जोखिम का पता लगाने वाले एंड्रयू रिचर्ड ने कहा, "यह सेवा इसलिए अहम है क्योंकि इससे राष्ट्रीय ग्रिड के ट्रांसमिशन नेटवर्क को निर्बाध और सुरक्षित बनाने में मदद मिलेगी." 


BBC 

अंतरिक्ष में इंसान को मिला बातूनी दोस्त



जापान का कहना है कि उसने अतंरिक्ष में बातचीत करने वाला जो रोबोट भेजा था, उसका व्यवहार पूरा तरह से सामान्य है.

अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से मिले वीडियो फुटेज में किरोबो नाम के इस रोबोट को जापानी अंतरिक्ष यात्री कोचि वकाटा के साथ बातचीत करते दिखाया गया है.

इस रोबोट को बनाने वाली कंपनी का कहना है कि किरोबो को इंसानों की तरह प्रतिक्रिया देने के लिए डिज़ाइन किया गया है और समय के साथ इसमें सीखने की क्षमता भी है.
रोबोट के डिज़ाइनर का कहना है कि किरोबो और इसी तरह के दूसरे क्लिक करें रोबोट का भविष्य काफ़ी अच्छा है. इनका इस्तेमाल न सिर्फ अंतरिक्ष यात्रा के दौरान यात्री के रूप में किया जा सकता है बल्कि ये वृद्ध और अकेले रहने वाले लोगों का साथी भी बन सकता है.
इस जापानी रोबोट को इसी साल अगस्त में अंतरिक्ष में भेजा गया था. इस कामयाबी के साथ ही जापान अंतरिक्ष में रोबोट भेजने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है.

कमाल की मासूमियत

रोबोट काफ़ी छोटा है और देखने में काफ़ी मासूम भी लगता है. अंतरिक्ष स्टेशन में किरोबो का काम अपने साथियों से बातचीत करना है.

इस माह अंतरिक्ष स्टेशन से भेजे गए वीडियो फुटेज में उसकी बातचीत काफी रोमांचक है. 

वीडियो में कोइची वाकाता कहते हैं, "मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं." इस पर किरोबो कहता है, "मैं भी काफ़ी देर से आपसे मिलना चाह रहा था."
खास बात यह है कि किरोबो की बातचीत पहले से फ़ीड नहीं की गई है. उसे स्वभाविक रूप से अपनी बात कहने के लिए डिज़ाइन किया गया है, बिल्कुल इंसानों की तरह. यही नहीं, समय के साथ उसमें सीखने की क्षमता भी है.

भावनात्मक सहारा

इस रोबोट के डिज़ाइनरों का मानना है कि भविष्य में इस तरह के रोबोट के लिए काफ़ी संभावनाएं हैं.
क्लिक करें किरोबो एक शोध का हिस्सा है, जिसके तहत यह देखा जाना है कि लंबे समय तक अकेले रहने वाले लोगों को मशीनें किस तरह से भावनात्मक सहारा दे सकती हैं.
किरोबो को यह नाम दो जापानी शब्दों को मिलाकर दिया गया है, जिनके अर्थ उम्मीद और रोबोट हैं.
किरोबो को जापानी भाषा में बात करने के लिए तैयार किया गया है और उसमें अपनी बातचीत को रिकॉर्ड करने की क्षमता भी है.

BBC 

बज गया 'ब्रह्मांड का सबसे अहम अलार्म'


वैज्ञानिकों का मानना है कि यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के अंतरिक्षयान 'रोसेटा' का अलार्म बज चुका है. इस अलार्म के बजने के साथ ही रोसेटा के नींद से जगने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.

रोसेटा की अंतरिक्षयात्रा एक दशक पहले शुरू हुई थी. लेकिन बीते दो साल से ये अंतरिक्षयान नींद में था क्योंकि इसे एक धूमकेतु पर उतरने के अपने अभियान के अंतिम चरण के लिए ऊर्जा बचानी थी.
इतनी लंबी नींद से जगने में इसे कई घंटे लग सकते हैं क्योंकि अहम उपकरणों को शुरू होने में वक़्त लगेगा. रोसेटा को इसी साल अगस्त में धूमकेतु 67पी/चर्यूमोफ़-गेरासिमेंको से मिलना है.

कुछ महीने तक इस चार किलोमीटर लंबे धूमकेतु के अध्ययन के बाद रोसेटा इस धूमकेतु पर एक छोटा सा रोबोट उतारेगा ताकि इससे नमूने इकट्ठा किए जा सकें और कुछ तस्वीरें ली जा सकें.
यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के जर्मनी के डर्मस्टेट स्थित ऑपरेशंस सेंटर के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि उन्हें रोसेटा से कुछ ही घंटों में कोई संदेश मिलेगा.

अंतरिक्ष की पड़ताल 
रोसेटा किसी धूमकेतु पर उतरने का अपनी तरह का पहला अभियान है
रोसेटा को जून 2011 में अस्थायी रूप से निष्क्रिय किया गया था क्योंकि सौर तंत्र में इसका रास्ता इसे सूरज से इतना दूर ले जाने वाला था कि इसके सोलर पैनल बहुत कम सौर ऊर्जा पैदा कर पाते.
साल 2004 में इसे लॉन्च किया गया था और इसने धूमकेतु तक पहुंचने के लिए थोड़ा घुमाव वाला रास्ता चुना है.
एक बार वैज्ञानिक रोसेटा की सेहत की पड़ताल कर लें तो वो इसे धूमकेतु 67 पी तक पहुंचाने के लिए इसके थ्रस्टर्स को शुरू करेंगे. अभी रोसेटा की धूमकेतु 67 पी से दूरी क़रीब 90 लाख किलोमीटर है, सितंबर के मध्य तक इस दूरी को सिर्फ़ 10 किलोमीटर तक लाया जाएगा.
11 नवंबर को धूमकेतु 67 पी पर तीन टांगों वाला रोबोट 'फ़िली' उतारा जाएगा. वैज्ञानिक चाहते हैं कि रोसेटा धूमकेतु 67 पी का तब पीछा करे जब वह सूरज की ओर बढ़ रहा हो ताकि इस धूमकेतु पर होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जा सके.
फ़िली धूमकेतु की सतह पर होने वाले परिवर्तनों की जानकारी देगा.
माना जाता है कि धूमकेतुओं पर ऐसे खनिज हैं जो 4.6 अरब साल पहले सौर तंत्र बनने से लेकर अब तक वैसे ही हैं. ऐसे में रोसेटा से मिलने वाले आंकड़े शोधकर्ताओं को ये समझने में मदद करेंगे कि समय के साथ अंतरिक्ष का वातावरण कैसे बदला है.

BBC

हबल दूरबीन ने भेजे ब्रह्मांड के असाधारण चित्र

हबल दूरबीन ने ब्रह्मांड की कुछ अत्यंत दुर्लभ तस्वीरें खींची हैं. इस तस्वीर को एक्सट्रीम डीप फील्ड यानी एक्सडीएफ का नाम दिया गया है.

हबल दूरबीन ने बेहद असाधारण तस्वीरें भेजी हैं जिनसे ब्रह्मांड के कई रहस्यों को जानने में मदद मिलेगी
ये तस्वीर कई आकाशगंगाओं को समेटे हुए है और ऐसे समय खींची गई है जबकि पहला तारा बिल्कुल चमकने की शुरुआत ही कर रहा है.
लेकिन ये दृश्य इतना आसान नहीं था. इनमें कुछ चीजें बहुत दूर हैं तो कुछ बहुत धुंधली हैं.
ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉक्टर मिशेल ट्रेंटी कहते हैं, “निश्चित रूप से ये एक असाधारण तस्वीर है.”
वो बताते हैं, "हम आकाश के इस हिस्से पर 22 दिनों तक टकटकी लगाए रहे और इससे हमें ब्रह्मांड को काफी भीतर तक देखने में मदद मिली. इसी वजह से हम ये भी जान पाए कि आकाशगंगाएं अपनी शुरुआती अवस्था में कैसी दिखती हैं."
एक्सडीएफ खगोलशास्त्र का एक महत्वपूर्ण औजार बनेगा. इसके भीतर फैली चीजों को दूसरी दूरबीनों से देखा जा सकता है. ये ऐसी तस्वीर है जो वैज्ञानिकों को वर्षों तक व्यस्त रखेगी और उन्हें ये जानने के लिए प्रेरित करती रहेगी कि आकाशगांगाओं का निर्माण और विकास किस तरह से हुआ. 

संशोधित रूप

ये नई तस्वीर वास्तव में पहले एक्सडीएफ का संशोधित संस्करण है.
इस दूरबीन को साल 2003 और 2004 में इकट्ठा किए गए आँकड़ों के आधार पर बनाया गया था और इससे तारामंडल में अंतरिक्ष के एक बहुत छोटे हिस्से के अंदर की तस्वीरें ली गईं. बाद में इसमें कई संशोधन किए गए.
हबल को इंफ्रारेड क्षेत्र में प्रवेश करना है, ये देखने के लिए कि ये करता क्या है. डॉक्टर ट्रेंटी कहते हैं, “शोध बताते हैं कि आकाशगंगाएं पहले बहुत छोटी होती हैं और इनकी विशेषताएं भी सीमित होती हैं लेकिन जैसे-जैसे ये बड़ी होती जाती हैं, तो इनका रूप काफी विशाल दिखता है जैसा कि एक्सडीएफ की इस तस्वीर में दिख रहा है.”
एक्सडीएफ की पाँच हजार से भी ज्यादा आकाशगंगाओं में से एक ऐसी भी है जो कि सबसे दूर है और जिसका अविष्कार होना अभी बाकी है.
यदि इसकी पुष्टि हो जाती है तो इसका मतलब होगा कि ये ब्रह्मांड के जन्म के 46 करोड़ साल बाद दिखा है.
ऐसी उम्मीद की जा रही है कि इसकी मदद से उन आकाशगंगाओं को भी देखने में मदद मिल सकती है जो कि ब्रह्मांड के जन्म के साथ ही बनी थीं यानी सबसे पुरानी हैं.
इसे देखने के लिए हबल दूरबीन के उत्तराधिकारी की जरूरत होगी. साल 2018 में अंतरिक्ष में जाने वाले प्रस्तावित जेम्स वेब स्पेस टेलिस्कोप से ये उम्मीद की जा रही है. 

 

 BBC

भारत:ब्रह्मांड के दूसरे छोर तक झांकेगी सबसे बड़ी दूरबीन



सर्न की महत्वाकांक्षी परियोजना लार्ज हैड्रान कोलाइडर के बाद एक बार फिर भारतीय वैज्ञानिक एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय परियोजना– थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) में महत्वपूर्ण योगदान करने जा रहे हैं

इस परियोजना के तहत पांच देश कनाडा, चीन, भारत, जापान और अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन बनाएंगे. इस परियोजना की लागत करीब 1.4 अरब डालर है और इसमें भारत लगभग 14 करोड़ डालर यानी 10 प्रतिशत योगदान करेगा.

इस दूरबीन के लिए भारत का 75 प्रतिशत योगदान इसके कलपुर्जों का डिजायन तैयार करने और दूरबीन के लिए साफ्टवेयर तैयार करने के रूप में होगा, जबकि शेष 25 प्रतिशत राशि नकद दी जाएगी.
इस दूरबीन को हवाई में स्थापित किया जाएगा.

परियोजना का महत्व


सुदूर तारों और आकाशगंगा की पड़ताल करने के लिए वर्तमान दूरबीनों की भी अपनी सीमा है. टीएमटी के जरिए ब्रह्मांड का अध्ययन ऐसे किया जा सकेगा, जैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ और विज्ञान की कई बड़ी चुनौतियों के जवाब खोजे जा सकेगा.
इस दूरबीन के काम शुरू करने के बाद वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पत्ति सहित अन्य रहस्यों से पर्दा हटा सकेगा.
इसके इस्तेमाल से वैज्ञानिक कॉस्मिक डार्क एज के अंत से लेकर पहले तारे की उत्पत्ति, पुन:-आयनीकरण और आकाशगंगा की उत्पत्ति के युग के बारे में जानकारी हासिल कर सकेंगे.

इसके अलावा टीएमटी से सौर मंडल के बारे में हमारी जानकारी अधिक बेहतर होगी.

नोडल एजेंसी 

                        टीएमटी मौजूदा सबसे बेहतर दूरबीन के मुकाबले नौ गुना शक्तिशाली होगी, जिससे      
                                                 अंतरिक्ष के अधिक स्पष्ट दृश्य मिल सकेंगे.
  
भारत सरकार ने भारतीय एस्ट्रोफिजिक्स संस्थान (आईआईए) को इस परियोजना के लिए नोडल एजेंसी बनाया है और संस्थान के निदेशक पी. श्रीकुमार परियोजना का समन्वय कर रहे है.
आईआईए के अलावा पुणे स्थित इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आईयूसीसीए) और नैनीताल स्थित आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जर्वेशनल साइंस भी इस परियोजना में योगदान देंगे.
टीएमटी के गवर्निंग बोर्ड को अध्यक्ष हेनरी यंग ने कहा है कि बुनियादी शोध के लिहाज से भारत महत्वपूर्ण देश है और उसकी प्रतिष्ठा जगज़ाहिर है और यह उनके लिए खुशी की बात है कि भारत इस परियोजना का साझेदार है.

दूरबीन की ख़ासियत

जैसा कि इस दूरबीन के नाम से ही पता चलता है, इसमें 30 मीटर व्यास के लेंस का इस्तेमाल किया जाएगा, जिसकी क्षमता इस समय मौजूद सबसे बड़ी दूरबीन के मुकाबले नौ गुनी होगी.
बड़े आकार के बावजूद टीएमटी को ज़मीन पर स्थापित किया जाएगा और यह अंतरिक्ष में स्थित दूरबीनों के मुकाबले अधिक शक्तिशाली होगी.
इस दूरबीन का निर्माण अगले साल शुरू होगा और उम्मीद है कि 2022 तक यह काम करने लगेगी.
इंडिया टीएमटी के कार्यक्रम निदेशक बी ईश्वर रेड्डी ने बताया है कि कई भारतीय कंपनियों ने टीएमटी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में दिलचस्पी दिखाई है.
पांडिचेरी स्थित जनरल ऑप्टिक्स एशिया लिमिटेड के साथ समझौता किया जा चुका है, जबकि गेदरेज सहित कुछ अन्य भी इस परियोजना के लिए कलपुर्जों की आपूर्ति करेंगी. 


Mystery of the universe (पुराणों अनुसार ब्रह्मांड के भेद)

ब्रह्मांड संबंधी पुराणों की धारणा को समझते हुए उनमें जो समानता है यहाँ प्रस्तुत है वह समान क्रम जिसका जिक्र सभी पुराणों में मिलता है। वेदों में यह सृष्टि भेद अलग तरह से व्यक्त होते हैं। वेदों को ही आधार बनाकर पुराणकारों ने वैदिक भेदों का विस्तार किया है।

यह ब्रह्मांड अंडाकार है। इस ब्रह्मांड का ठोस तत्व जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍घिरा हुआ और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है वहाँ से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है।

और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत्तत्व से घिरा हुआ है जो असीमित, अपरिमेय और अनंत है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है।

इसे उल्टे क्रम में समझे महत्तत्व से घिरा अनंत तामस अंधकार और उससे ही घिरे आकाश को स्थान और समय कहा गया है। इससे ही दूरी और समय का ज्ञान होता है। आकाश से ही वायुतत्व की उत्पत्ति होती है। वायु से ही तेज अर्थात अग्नि की और अग्नि से जल, जल से पृथ्‍वी की सृष्‍टी हुई। इस पृथ्‍वी पर जो जीवन है उनमें पृथ्‍वी और आकाश दोनों का ही योगदान माना गया है। मानव या अन्य सिर्फ माटी का पुतला ही नहीं है, पाँचों तत्व का जोड़ है।

सरल भाषा : आज की भाषा में इसे कहें तो हमारी धरती पर जल तत्व की मात्रा अधिक है अर्थात यह धरती जल से घिरी हुई है। जल से भी अधुक वायु तत्व है तो यह धरती और जल वायु तत्व से घिरा हुआ है। वायु अर्थात जहाँ तक ऑक्सिजन है वहाँ तक ही है उसके ऊपर से अंतरिक्ष होता है जिसे आकाश भी कह सकते हैं तो यह वायु आकाश से घिरा हुआ है। फिर जहाँ तक प्रकाश फैला हुआ है वहीं तक आकाश या जहाँ तक ग्रह-नक्षत्र विद्यमान है वहीं तक आकाश माना जाता है फिर यह आकाश भी तामस अंधकार से घिरा हुआ है।

ब्रह्मांड का विभाजन या भेद : पुराणों ने ब्रह्मांड को मूलत: तीन भागों में विभक्त किया है:- (1) कृतक त्रैलोक्य (2) महर्लोक (3) अकृतक त्रैलोक्य।

(1) कृतक त्रैलोक्य-
कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन भी कहते हैं। इसके बारे में पुराणों कि धारणा है कि यह नश्वर है, कृष्ण इसे परिवर्तनशील मानते हैं। इसकी एक निश्‍चित आयु है। उक्त त्रैलोक्य के नाम है- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक।

A. भूलोक : जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं और भी पृथवियाँ।
B. भुवर्लोक : पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है। और भी कई सूर्य है जिनकी पृथवियाँ होगी।
C. स्वर्लोक : सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।

पुराणों में उक्त त्रैलोक्य के भी कई तरह के विभाजन बताएँ गई है।

(2) महर्लोक - 
ध्रुवलोक से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है। कृतक के बाद जन, तप और सत्य नामक तीन लोक होते हैं जिन्हें अकृतक लोक कहते हैं। कृतक और अकृतक लोक के बीच स्थित है 'महर्लोक' जो कल्प के अंत की प्रलय में केवल जनशून्य हो जाता है, लेकिन नष्ट नहीं होता। इसीलिए इसे कृतकाकृतक भी लोक कहते हैं।

(3) अकृतक त्रैलोक्य -
कृतक और महर्लोंक के बाद जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात जो नश्वर नहीं है अनश्वर है। जिसे मनुष्य स्वयं के सदकर्मो से ही अर्जित कर सकता है।

A. जनलोक : महर्लोक से बीस करोड़ योजन ऊपर जनलोक है।
B. तपलोक : जनलोक से आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है।
C. सत्यलोक : तपलोक से बारह करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है।

नोट : उक्त सात लोकों के बारे में पुराणों ने विस्तार से अलग-अलग तरीके से लिखा है। पुराणों का यह ब्रह्मांड भेद वेदों पर ही आधारित माना जाता है, लेकिन वेदों में ब्रह्मांड को पंच कोशों वाला माना गया है। जहाँ तक 'योजन' का सवाल है तो यह स्पष्ट नहीं है। इसे अनुमानत: ही माने।
 

The Secret Of Life


The Secret Of Life
For you, what is the secret of life?
The secret of life is can be happiness, by using the technique of Law of Attraction which is teaching to achieve happiness, determination-determine what is that you really desire in life. Money is not the secret of life because many suicide cases are from higher income families. Things that can give you happiness is those little things like hug, smile, love and distinguishing  what you really want so that you will be focus for more of it and visible those things in reality.
 
There are lots of techniques on the secret of life, but if you don’t apply it, you won’t experience, joy, peace and true happiness. Secrets of life is to change our inner world not the outer world. Beyond those illusionary walls, lies the real world — and real happiness.
Energy is, is the secret of life the most current personification of the Law of attraction states that like attracts like, meaning if you’re energy is positive it will draw more positive energy.
Emitting Positive Energy:
= Movement is a positive energy, willing to grow towards healing, strength and staying in touch with your dark side and weaknesses.
= Be compassionate to yourself and to the world.
= Positive energy doesn’t refuse negative emotions, Feel defeat and fear and keep persevering.
= Giving the benefit of the doubt and don’t judge promptly that what positive people do.
= Honesty is also a positive energy, expressing your true self by being gentle and honest and through thoughts and actions.
= Positive energy appreciates success and happiness of other people.
= and Lastly, Follow your dreams and desires.
DNA the secret of life, how can this be?  Fifty years ago, James D. Watson helped launch the greatest ongoing scientific quest of our time. He shows that the secret of life is chemical. New genetics has set mankind off on an expedition unimaginable just a many years ago. He expose how genetics has set free a wealth of possibilities to change the human condition. He also showed how DNA continues to revise our understanding of human origins, and of our identities as group and as individual .

Secrets of Success


1. Sleep less. This is one of the best investments you can make to make your life more productive and rewarding. Most people do not need more than 6 hours to maintain an excellent state of health. Try getting up one hour earlier for 21 days and it will develop into a powerful habit. Remember, it is the quality not the quantity of sleep that is important. And just imagine having an extra 30 hours a month to spend on the things that are important to you.

2. Set aside one hour every morning for personal development matters. Meditate, visualize your day, read inspirational texts to set the tone of your day, listen to motivational tapes or read great literature. Take this quiet period to vitalize and energize your spirit for the productive day ahead. Watch the sun rise once a week or be with nature. Starting the day off well is a powerful strategy for self-renewal and personal effectiveness.

3. Do not allow those things that matter the most in your life be at the mercy of activities that matter the least. Every day, take the time to ask yourself the question "is this the best use of my time and energy?" Time management is life management so guard your time with great care.

4. Use the rubber band method to condition your mind to focus solely on the most positive elements in your life. Place a rubber band around your wrist. Each time a negative, energy sapping thought enters your mind, snap the rubber band. Through the power of conditioning, your mind will associate pain with negative thinking and you will soon possess a strongly positive mindset.

5. Always answer the phone with enthusiasm in your voice and show your appreciation for the caller. Good phone manners are essential. To convey authority on the line, stand up. This will instill further confidence in your voice.

6. Throughout the day we all get inspiration and excellent ideas. Keep a set of cards (the size of business cards; available at most stationary stores) in your wallet along with a pencil to jot down these insights. When you get home, put the ideas in a central place such as a coil notepad and review them from time to time. As noted by Oliver Wendell Holmes: "Man's mind, once stretched by a new idea, never regains its original dimensions."

7. Set aside every Sunday evening for yourself and be strongly disciplined with this habit. Use this period to plan your week, visualize your encounters and what you want to achieve, to read new materials and inspirational books, to listen to soft soothing music and to simply relax. This habit will serve as your anchor to keep you focused, motivated and effective throughout the coming week.

8. Always remember the key principle that the quality of your life is the quality of your communication. This means the way you communicate with others and, more importantly, the way you communicate with yourself. What you focus on is what you get. If you look for the positive this is what you get. This is a fundamental law of Nature.

9. Stay on purpose, not on outcome. In other words, do the task because it is what you love to do or because it will help someone or is a valuable exercise. Don't do it for the money or the recognition. Those will come naturally. This is the way of the world.

10. Laugh for five minutes in the mirror each morning. Steve Martin does. Laughter activates many beneficial chemicals within the body that place us into a very joyous state. Laughter also returns the body to a state of balance. Laughter therapy has been regularly used to heal persons with varied ailments and is a wonderful tonic for life's ills. While the average 4 year old laughs 500 times a day, the average adult is lucky to laugh 15 times a day. Revitalize the habit of laughter, it will put far more living into your life.

11. Light a candle beside you when you are reading in the evening. It is most relaxing and creates a wonderful, soothing atmosphere. Make your home an oasis from the frenzied world outside. Fill it with great music, great books and great friends.

12. To enhance your concentration and powers of focus, count your steps when you walk. This is a particularly strong technique. Take six steps while taking a long inhale, hold your breath for another six steps, and then exhale for six steps. If six steps is too long for the breaths, do whatever you feel comfortable with. You will feel very alert, refreshed, internally quiet and centered after this exercise. So many people allow their minds to be filled with mental chatter. All peak performers appreciate the power of a quiet, clear mind which will concentrate steadily on all important tasks.

13. Learn to meditate effectively. The mind is naturally a very noisy machine which wants to move from one subject to another like an unchained monkey. One must learn to restrain and discipline it if one is to achieve anything of substance and to be peaceful. Meditation for twenty minutes in the morning and twenty minutes in the evening will certainly provide you with exceptional results if regularly practiced for six months. Learned sages of the East have been advancing the many benefits of meditation for over 5000 years.

14. Learn to be still. The average person doesn't spend even 30 minutes a month in total silence and tranquility. Develop the skill of sitting quietly, enjoying the powerful silence for at least ten minutes a day. Simply think about what is important to you in your life. Reflect on your mission. Silence indeed is golden. As the Zen master once said, it is the space between the bars that holds the cage.

15. Enhance your will-power; it is likely one of the best training programs you can invest in. Here are some ideas to strengthen your will and become a stronger person:

a. Do not let your mind float like a piece of paper in the wind. Work hard to keep it focused at all times. When doing a task, think of nothing else. When walking to work, count the steps that it takes to get all the way to the office. This is not easy but your mind will soon understand that you hold its reins and not vice versa. Your mind must eventually become as still as a candle flame in a corner where there is no draft.

b. Your will is like a muscle. You must first exercise it and then push before it gets stronger. This necessarily involves short term pain but be assured that the improvements will come and will touch your character in a most positive way. When you are hungry, wait another hour before your meal. When you are labouring over a difficult task and your mind is prompting you to pick up the latest magazine for a break or to get up and go talk to a friend, curb the impulse. Soon you will be able to sit for hours in a precisely concentrated state. Sir Issac Newton, one of the greatest classical physicists the world has produced, once said: "if I have done the public any service, it is due to patient thought." Newton had a remarkable ability to sit quietly and think without interruption for very long periods of time. If he can develop this so can you.

Happiness


From The Mahabharata
King Yudhishthira said: By doing what does one acquire happiness, and what is that by doing which one meets with woe? What also is that, O Bharata, by doing which one becomes freed from fear and sojourns here crowned with success (in respect of the objects of life)?
Bhishma said: The ancients who had their understandings directed to the Srutis (Vedas), highly applauded the duty of self-restraint for all the orders generally but for the Brahmanas in especial. Success in respect of religious rites never occurs in the case of one that is not self-restrained. Religious rites, penances, truth,- all these are established upon self-restraint. Self-restraint enhances one’s energy. Self-restraint is said to be sacred. The man of self-restraint becomes sinless and fearless and wins great results. One that is self-restrained sleeps happily and wakes happily. He sojourns happily in the world and his mind always remains cheerful. Every kind of excitement is quietly controlled by self-restraint. One that is not self-restrained fails in a similar endeavour.
The practice of self-restraint is
distinguished above all other virtues.
The man of self-restraint beholds his innumerable foes (in the form of lust, desire and wrath, etc.), as if these dwell in a separate body. Like tigers and other carnivorous beasts, persons destitute of self-restraint always inspire all creatures with dread. For controlling these men, the Self-born (Brahman) created kings. In all the four modes of life, the practice of self-restraint is distinguished above all other virtues. The fruits of self-restraint are much greater than those obtainable in all the modes of life.
I shall now mention to thee the indications of those persons who prize self-restraint highly. They are nobility, calmness of disposition, faith, forgiveness, invariable simplicity, the absence of garrulity, humility, reverence for superiors, benevolence, compassion for all creatures, frankness, abstention from talk upon kings and men in authority, from all false and useless discourses, and from applause and censure of others. The self-restrained man becomes desirous of emancipation and, quietly bearing present joys and griefs, is never exhilarated or depressed by prospective ones.
Destitute of vindictivenes and all kinds of guile, and unmoved by praise and blame, such a man is well-behaved, has good manners, is pure of soul, has firmness or fortitude, and is a complete master of his passions. Receiving honours in this world, such a man in after-life goes to heaven. Causing all creatures to acquire what they cannot acquire without his aid, such a man rejoices and becomes happy.
[Note: Giving food and clothes to the poor and needy in times of scarcity is referred to].
Devoted to universal benevolence, such a man never cherishes animosity for any one. Tranquil like the ocean at a dead calm, wisdom fills his soul and he is never cheerful. Possessed of intelligence, and deserving of universal reverence, the man of self-restraint never cherishes fear of any creature and is feared by no creature in return.
That man who never rejoices even at large acquisitions and never feels sorrow when overtaken by calamity, is said to be possessed of contented wisdom. Such a man is said to be self-restrained. Indeed, such a man is said to be a regenerate being. Versed with the scriptures and endued with a pure soul, the man of self-restraint, accomplishing all those acts that are done by the good, enjoys their high fruits.
They, however, that are of wicked soul never betake themselves to the path represented by benevolence, forgiveness, tranquillity, contentment, sweetness of speech, truth, liberality and comfort. Their path consists of lust and wrath and cupidity and envy of others and boastfulness.
Subjugating lust and wrath, practising the vow of Brahmacharya (celibacy) and becoming a complete master of his senses, the Brahmana, exerting himself with endurance in the austerest of penances, and observing the most rigid restraints, should live in this world, calmly waiting for his time like one seeming to have a body though fully knowing that he is not subject to destruction.
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Happiness
From The Mahabharata
Translated by Sri Kisari Mohan Ganguli
Bharadwaja said:
You have said that happiness is the highest object. I do not comprehend this. This attribute of the soul that (you say) is so desirable is not sought by the Rishis who are regarded to be engaged in something promising a higher reward. It is heard that the Creator of the three worlds, viz., the puissant Brahma, lives alone, observant of the vow of Brahmacharya (celibacy). He never devotes himself to the happiness obtainable from the gratification of desire. Also, the divine Master of the universe, the lord of Uma (Siva), reduced Kama (the deity of desire) to extinction. For this reason, we say that happiness is not acceptable to high-souled people. Nor does it appear to be a high attribute of the Soul.
I cannot put faith in what thy divine self has said, viz., that there is nothing higher than happiness. That there are two kinds of consequences in respect of our acts, viz., the springing of happiness from good acts and of sorrow from sinful acts, is only a saying that is current in the world.
Brigu said: On this it is said as follows:
From Untruth springs Darkness. They that are overwhelmed by Darkness pursue only Unrighteousness and not Righteousness, being overmastered by wrath, covetousness, malice, falsehood, and similar evils. They never obtain happiness either here or hereafter.
On the other hand, they are afflicted by various kinds of disease and pain and trouble. They are tortured by Death, imprisonment, and diverse other griefs of that kind, and by the sorrows, attending on hunger and thirst and toil. They are pained by the numerous bodily griefs that arise from rain and wind and burning heat and exceeding cold.
They are also overwhelmed by numerous mental griefs caused by loss of wealth and separation from friends, as also by griefs caused by decrepitude and death. They that are not touched by these diverse kinds of physical and mental afflictions, know what happiness is.
These evils are never found in heaven. There delicious breezes blow. In heaven there is also perpetual fragrance. In heaven there is no hunger, no thirst, no decrepitude, no sin. In this world there is both happiness and misery. In hell there is only misery. Therefore, happiness is the highest object of acquisition.
The Earth is the progenitrix of all creatures. Females partake of her nature. The male animal is like Prajapati himself. The vital seed, it should be known, is the creative energy. In this way did Brahman ordain in days of old that the creation should go on. Each, affected by his own acts, obtains happiness or misery.
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From The Bhagavad Gita, Ch. 18, Verse 10
The man of renunciation, pervaded by purity, intelligent and
with his doubts cut asunder, does not hate a disagreeable
work nor is he attached to an agreeable one.
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From The Chhandogya Upanishad
XVIII.  vii.  23-26
Narada approached Sanatkumara and said: “Sir, teach me.”
“Come and tell me what you know,” he replied, “and then I will teach you what is beyond that.”
“Sir, I know the Rig-Veda, the Yajur-Veda, the Sama-Veda and Atharvan the fourth; and also the Itihasa-Purana as the fifth. I know the Veda of the Vedas (viz., grammar), the rules for the propitiation of the Pitris (ancestors), the science of numbers, the science of portents, the science of time, the science of logic, ethics and politics, the science of the gods, the science of scriptural studies, the science of the elemental science, the science of weapons, the science of the stars, the science of snake-charming and the fine arts – all these, Sir, I know,”
“But, Sir, with all these I am only a knower of words, not a knower of the Self. I have heard from holy men like you that he who knows the Self crosses over sorrow. I am in sorrow. Do, Sir, help me to cross over to the other side of sorrow.”
To him he then said: “Verily, whatever you have learned here is only a name.
“That which is Infinite – that, indeed, is happiness. There is no happiness in anything that is finite. The Infinite alone is happiness. But this Infinite one must desire to understand.”
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From The Teachings of Sri Ramana Maharshi
Question: What do you consider to be the cause of world
suffering? And how can we help to change it, (a) as individuals, or (b) collectively?
Sri Ramana Maharshi: Realise the Self. It is all that is necessary.
Question: In this life beset with limitations can I ever realise the bliss of the Self?
Maharshi: That bliss of the Self is always with you, and you will find it for yourself, if you would seek it earnestly. The cause of your misery is not in the life outside you, it is in you as the ego. You impose limitations on yourself and then make a vain struggle to transcend them. All unhappiness is due to the ego; with it comes all your trouble. What does it avail you to attribute to the happenings in life the cause of misery which is really within you? What happiness can you get from things extraneous to yourself? When you get it, how long will it last?
If you would deny the ego and scorch it by ignoring it, you would be free. If you accept it, it will impose limitations on you and throw you into a vain struggle to transcend them. To be the Self that you really are is the only means to realise the bliss that is ever yours.
Question: If God is all why does the individual suffer for his
actions? Are not the actions for which the individual is made
to suffer prompted by him?
Maharshi: He who thinks he is the doer is also the sufferer.
Questioner: But the actions are prompted by God and the individual is only his tool.
Maharshi: This logic is applied only when one suffers, but not when one rejoices. If the conviction prevails always, there will be no suffering either.
Question: When will the suffering cease?
Maharshi: Not until individuality is lost. If both the good and bad actions are his, why should you think that the enjoyment and suffering are yours alone? He who does good or bad, also enjoys pleasure or suffers pain. Leave it there and do not superimpose suffering on yourself.
Question: How can you say that suffering is non-existent? I see it everywhere.
Maharshi: One’s own reality, which shines within everyone as the Heart, is itself the ocean of unalloyed bliss. Therefore like the unreal blueness of the sky, misery does not exist in reality but only in mere imagination. Since one’s own reality, which is the sun of jnana (Spiritual knowledge) that cannot be approached by the dark delusion of ignorance, itself shines as happiness, misery is nothing but an illusion caused by the unreal sense of individuality. In truth no one has ever experienced any such thing other than that unreal illusion. If one scrutinises one’s own Self, which is bliss, there will be no misery at all in one’s life. One suffers because of the idea that the body, which is never oneself, is ‘I’; suffering is all due to this delusion.
Question: I suffer in both mind and body. From the day of my birth I have never had happiness. My mother too suffered from the time she conceived me, I hear. Why do I suffer thus? I have not sinned in this life. Is all this due to the sins of past lives?
Maharshi: You say the mind and body suffer. But do they ask the questions? Who is the questioner? Is it not the one that is beyond both mind and body? You say the body suffers in this life and ask if the cause of this is the previous life. If that is so then the cause of that life is the one before it, and so on. So, like the case of the seed and the sprout, there is no end to the causal series. It has to be said that all the lives have their first cause in ignorance. That same ignorance is present even now, framing this question. That ignorance must be removed by jnana (spiritual knowledge).
‘Why and to whom did this suffering come?’ If you question thus you will find that the ‘I’ is separate from the mind and body, that the Self is the only eternal being, and that it is eternal bliss. This is jnana.
Question: I suffer from worries without end; there is no peace for me, though there is nothing wanting for me to be happy.
Maharshi: Do these worries affect you in sleep?
Questioner: No, they do not.
Maharshi: Are you the very same man now, or are you different from him that slept without any worry?
Questioner: Yes, I am the same person.
Maharshi: Then surely those worries do not belong to you. It is your own fault if you assume that they are yours.
Question: When we suffer grief and complain and appeal to
you by letter or mentally by prayer, are you not moved to feel
what a pity it is that your child suffers like this?
Maharshi: If one felt like that one would not be a jnani.
Question: We see pain in the world. A man is hungry. It is a physical reality, and as such, it is very real to him. Are we to call it a dream and remain unmoved by his pain?
Maharshi: From the point of view of jnana or the reality, the pain you speak of is certainly a dream, as is the world of which the pain is an infinitesimal part. In the dream also you yourself feel hunger. You feed yourself and, moved by pity, feed the others that you find suffering from hunger. So long as the dream lasts, all those hunger pains are quite as real as you now think the pain you see in the world to be. It is only when you wake up that you discover that the pain in the dream was unreal.
You might have eaten to the full and gone to sleep. You dream that you work hard and long in the hot sun all day, are tired and hungry and want to eat a lot. Then you get up and find your stomach is full and you have not stirred out of your bed. But all this is not to say that while you are in the dream you can act as if the pain you feel there is not real. The hunger in the dream has to be assuaged by the food in the dream. The fellow beings you found so hungry in the dream had to be provided with food in that dream. You can never mix up the two states, the dream and the waking state. Till you reach the state of jnana and thus wake out of this maya, you must do social service by relieving suffering whenever you see it.
But even then you must do it, as we are told, without ahamkara, that is without the sense ‘I am the doer’, but feeling, ‘I am the Lord’s tool.’ Similarly one must not be conceited and think, ‘I am helping a man below me. He needs help. I am in a position to help. I am superior and he is inferior.’ You must help the man as a means of worshipping God in that man. All such service too is for you the Self, not for anybody else. You are not helping anybody else, but only yourself.
Question: In the case of persons who are not capable of long meditation will it not be enough if they engage themselves in doing good to others?
Maharshi: Yes, it will do. The idea of good will be in their heart.
That is enough. Good, God, love, all are the same thing. If the
person keeps continuously thinking of any one of these, it will be enough. All meditation is for the purpose of keeping out all other thoughts.
Question: So one should try to ameliorate suffering,
even if one knows that ultimately it is non-existent?
Maharshi: There never was and never will be a time when all are equally happy or rich or wise or healthy. In fact none of these terms has any meaning except in so far as the opposite to it exists. But that does not mean that when you come across anyone who is less happy or more miserable than yourself, you are not to be moved to compassion or to seek to relieve him as best you can. On the contrary, you must love all and help all, since only in that way can you help yourself.
When you seek to reduce the suffering of any fellow man or fellow creature, whether your efforts succeed or not, you are yourself evolving spiritually especially if such service is rendered disinterestedly, not with the egotistic feeling ‘I am doing this’, but in the spirit ‘God is making me the channel of this service; he is the doer and I am the instrument.’
If one knows the truth that all that one gives to others is giving only to oneself, who indeed will not be a virtuous person and perform the kind act of giving to others? Since everyone is one’s own Self, whoever does whatever to whomever is doing it only to himself.
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From The Bhagavad Gita
Translations and commentaries by
Swami Shivananda

The enjoyments that are born of contacts are only generators of pain, for they have a beginning and an end, O Arjuna: the wise do not rejoice in them.
-Gita, Ch. 5, Verse 22
[Note: Man goes in quest of joy and searches in the external perishable objects for his happiness. He fails to get it but instead he carries a load of sorrow on his head.
You should withdraw the senses from the sense-objects as there is no trace of happiness in them and fix the mind on the immortal, blissful Self within. The sense-objects have a beginning and an end. Separation from the sense-objects gives you a lot of pain. During the interval between the origin and the end you experience a hollow, momentary, illusory pleasure. This fleeting pleasure is due to Avidya or ignorance. He who is endowed with discrimination or knowledge of the Self will never rejoice in these sensual objects. Only ignorant persons who are passionate will rejoice in the sense-objects.]
That pleasure which arises from the contact of the sense-organ with the objects, which is at first like nectar, and in the end like poison - that is declared to be Rajasic.
-Gita, Ch. 18, Verse 38
The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti (Arjuna), which causes heat and cold, pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.
-Gita, Ch. 2, Verse 14

Wednesday, 29 January 2014

Jai ho "जय हो": ॐ ब्रह्माण्ड का रहस्य

Jai ho "जय हो": ॐ ब्रह्माण्ड का रहस्य:   ॐ के उच्चारण का रहस्य - ब्रह्माण्ड का रहस्य ॐ को ओम  लिखन े की मजबूरी है अन्यथा तो यह ॐ ही है। अब आप ही सोचे इसे कैसे उच्चारित...

Sunday, 26 January 2014

ओ३म् (ॐ) OM मानवता का सबसे बड़ा धन





       
    
ओ३म् (ॐ) मानवता का सबसे बड़ा धन 


ओ३म् (ॐ) मानवता के शब्दकोष में सबसे मूल्यवान शब्द है.

       इस नाम में हिन्दू, मुस्लिम, या इसाई जैसी कोई बात नहीं है. बल्कि ओ३म् तो किसी ना किसी रूप में सभी मुख्य  संस्कृतियों का प्रमुख भाग है. यह तो अच्छाई, शक्ति, ईश्वर भक्ति और आदर का प्रतीक है. उदाहरण के लिए अगर हिन्दू अपने सब मन्त्रों और भजनों में इसको शामिल करते हैं तो ईसाई और यहूदी भी इसके जैसे ही एक शब्द  “आमेन” का प्रयोग धार्मिक सहमति दिखाने के लिए करते हैं. हमारे मुस्लिम दोस्त इसको “आमीन” कह कर याद करते हैं. बौद्ध इसे          “ओं मणिपद्मे हूं” कह कर प्रयोग करते हैं. सिख मत भी “इक ओंकार” अर्थात “एक ओ३म” के गुण गाता है.


अंग्रेजी का शब्द “omni”, जिसके अर्थ अनंत और कभी ख़त्म न होने वाले तत्त्वों पर लगाए जाते हैं (जैसे omnipresent, omnipotent), भी वास्तव में इस ओ३म् शब्द से ही बना है. इतने से यह सिद्ध है कि ओ३म् किसी मत, मजहब या सम्प्रदाय से न होकर पूरी इंसानियत का है. ठीक उसी तरह जैसे कि हवा, पानी, सूर्य, ईश्वर, वेद आदि सब पूरी इंसानियत के लिए हैं न कि केवल किसी एक सम्प्रदाय के लिए.

       यजुर्वेद [२/१३, ४०/१५,१७], ऋग्वेद [१/३/७] आदि स्थानों पर. इसके अलावा गीता और उपनिषदों में ओ३म् का बहुत गुणगान हुआ है. मांडूक्य उपनिषद तो इसकी महिमा को ही समर्पित है.

ओ३म् का अर्थ : 

   वैदिक साहित्य इस बात पर एकमत है कि ओ३म् ईश्वर का मुख्य नाम है. योग दर्शन [१/२७,२८] में यह स्पष्ट है. यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, उ, म. प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है. जैसे “अ” से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. “उ” से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है. “म” से अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है. ये तो बहुत थोड़े से उदाहरण हैं जो ओ३म् के प्रत्येक अक्षर से समझे जा सकते हैं. वास्तव में अनंत ईश्वर के अनगिनत नाम केवल इस ओ३म् शब्द में ही आ सकते हैं, और किसी में नहीं.

भला कभी अक्षर भी कोई अर्थ दे सकते हैं? इस तरह हर एक अक्षर के मनमाने अर्थ करना बुद्धिमानों का काम नहीं.
    जो आप “शब्द-अर्थ” सम्बन्ध को विचारते तो ऐसा कभी नहीं कहते. वास्तव में हरेक ध्वनि हमारे मन में कुछ भाव उत्पन्न करती है. सृष्टि की शुरुआत में जब ईश्वर ने ऋषियों के हृदयों में वेद प्रकाशित किये तो हरेक शब्द से सम्बंधित उनके निश्चित अर्थ ऋषियों ने ध्यान अवस्था में प्राप्त किये. ऋषियों के अनुसार ओ३म् शब्द के तीन अक्षरों से भिन्न भिन्न अर्थ निकलते हैं, जिनमें से कुछ ऊपर दिए गए हैं.
एक आवश्यक निवेदन:
ऊपर दिए गए शब्द-अर्थ सम्बन्ध का ज्ञान ही वास्तव में वेद मन्त्रों के अर्थ में सहायक होता है और इस ज्ञान के लिए मनुष्य को योगी अर्थात ईश्वर को जानने और अनुभव करने वाला होना चाहिए. परन्तु दुर्भाग्य से वेद पर अधिकतर उन लोगों ने कलम चलाई है जो योग तो दूर, यम नियमों की परिभाषा भी नहीं जानते थे. सब पश्चिमी वेद भाष्यकार इसी श्रेणी में आते हैं. तो अब प्रश्न यह है कि जब तक साक्षात ईश्वर का प्रत्यक्ष ना हो तब तक वेद कैसे समझें? तो इसका उत्तर है कि ऋषियों के लेख और अपनी बुद्धि से सत्य असत्य का निर्णय करना ही सब बुद्धिमानों को अत्यंत उचित है. ऋषियों के ग्रन्थ जैसे उपनिषद्, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, निरुक्त, निघंटु, सत्यार्थ प्रकाश, भाष्य भूमिका, इत्यादि की सहायता से वेद मन्त्रों पर विचार करके अपने सिद्धांत बनाने चाहियें. और इसमें यह भी है कि पढने के साथ साथ यम नियमों का कड़ाई से पालन बहुत जरूरी है. वास्तव में वेदों का सच्चा स्वरुप तो समाधि अवस्था में ही स्पष्ट होता है, जो कि यम नियमों के अभ्यास से आती है.
व्याकरण मात्र पढने से वेदों के अर्थ कोई भी नहीं कर सकता. वेद समझने के लिए आत्मा की शुद्धता सबसे आवश्यक है. उदाहरण के लिए संस्कृत में “गो” शब्द का वास्तविक अर्थ है “गतिमान”. इससे इस शब्द के बहुत से अर्थ जैसे पृथ्वी, नक्षत्र आदि दीखने में आते हैं. परन्तु मूर्ख और हठी लोग हर स्थान पर इसका अर्थ गाय ही करते हैं और मंत्र के वास्तविक अर्थ से दूर हो जाते हैं. वास्तव में किसी शब्द के वास्तविक अर्थ के लिए उसके मूल को जानना जरूरी है, और मूल विना समाधि के जाना नहीं जा सकता. परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम वेद का अभ्यास ही न करें. किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से कर्मों में शुद्धता से आत्मा में शुद्धता धारण करके वेद का अभ्यास करना सबको कर्त्तव्य है.
ओ३म् के प्रत्येक अक्षर से अलग अलग अर्थ की कल्पना हमको ठीक नहीं जान पड़ती. किसी उदाहरण से इसको और स्पष्ट कीजिये.
  यह शब्द अर्थ सम्बन्ध योगाभ्यास से स्पष्ट होता जाता है. परन्तु कुछ उदाहरण तो प्रत्यक्ष ही हैं. जैसे “म” से ईश्वर के पालन आदि गुण प्रकाशित होते हैं. पालन आदि गुण मुख्य रूप से माता से ही पहचाने जाते हैं. अब विचारना चाहिए कि सब संस्कृतियों में माता के लिए क्या शब्द प्रयोग होते हैं. संस्कृत में माता, हिंदी में माँ, उर्दू में अम्मी,  अंग्रेजी में मदर, मम्मी, मॉम आदि, फ़ारसी में मादर, चीनी भाषा में माकुन इत्यादि. सो इतने से ही स्पष्ट हो जाता है कि पालन करने वाले मातृत्व गुण से “म” का और सभी संस्कृतियों से वेद का कितना अधिक सम्बन्ध है. एक छोटा बच्चा भी सबसे पहले इस “म” को ही सीखता है और इसी से अपने भाव व्यक्त करता है. इसी से पता चलता है कि ईश्वर की सृष्टि और उसकी विद्या वेद में कितना गहरा सम्बन्ध है.
अच्छा! माना कि ओ३म् का अर्थ बहुत अच्छा है, किन्तु इसका उच्चारण क्यों करना?
  इसके कई शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक लाभ हैं. यहाँ तक कि यदि आपको अर्थ भी मालूम नहीं तो भी इसके उच्चारण से शारीरिक लाभ तो होगा ही. यह सोचना कि ओ३म् किसी एक धर्म कि निशानी है, ठीक बात नहीं. अपितु यह तो तब से चला आता है जब कोई अलग धर्म ही नहीं बना था! ओ३म् को झुठलाना और इसका प्रयोग न करना तो ऐसा ही है जैसे कोई यह कहकर हवा, पानी, खाना आदि लेना छोड़ दे कि ये तो उसके मजहब के आने से पहले भी होते थे! सो यह बात ठीक नहीं. ओ३म् के अन्दर ऐसी कोई बात नहीं है कि किसी के भगवान्/अल्लाह का अनादर हो जाये. इससे इसके उच्चारण करने में कोई दिक्कत नहीं.
ओ३म् इस ब्रह्माण्ड में उसी तरह भर रहा है कि जैसे आकाश. ओ३म् का उच्चारण करने से जो आनंद और शान्ति अनुभव होती है, वैसी शान्ति किसी और शब्द के उच्चारण से नहीं आती. यही कारण है कि सब जगह बहुत लोकप्रिय होने वाली आसन प्राणायाम की कक्षाओं में ओ३म के उच्चारण का बहुत महत्त्व है. बहुत मानसिक तनाव और अवसाद से ग्रसित लोगों पर कुछ ही दिनों में इसका जादू सा प्रभाव होता है. यही कारण है कि आजकल डॉक्टर आदि भी अपने मरीजों को आसन प्राणायाम की शिक्षा देते हैं.
ओ३म् के उच्चारण के शारीरिक लाभ: 

१. अनेक बार ओ३म् का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनावरहित हो जाता है.

२. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ओ३म् के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं!
३. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है.
४. यह हृदय और खून के प्रवाह को संतुलित रखता है.
५. इससे पाचन शक्ति तेज होती है.
६. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है.
७. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं.
८. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है. रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी.
९ कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मजबूती आती है.
इत्यादि इत्यादि!

ओ३म् के उच्चारण से मानसिक लाभ :

ओ३म् के उच्चारण का अभ्यास जीवन बदल डालता है

१. जीवन जीने की शक्ति और दुनिया की चुनौतियों का सामना करने का अपूर्व साहस मिलता है.

२. इसे करने वाले निराशा और गुस्से को जानते ही नहीं!
३. प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल और नियंत्रण होता है. परिस्थितियों को पहले ही भांपने की शक्ति उत्पन्न होती है.
४. आपके उत्तम व्यवहार से दूसरों के साथ सम्बन्ध उत्तम होते हैं. शत्रु भी मित्र हो जाते हैं.
५. जीवन जीने का उद्देश्य पता चलता है जो कि अधिकाँश लोगों से ओझल रहता है.
६. इसे करने वाला व्यक्ति जोश के साथ जीवन बिताता है और मृत्यु को भी ईश्वर की व्यवस्था समझ कर हँस कर स्वीकार करता है.
७. जीवन में फिर किसी बात का डर ही नहीं रहता.
८. आत्महत्या जैसे कायरता के विचार आस पास भी नहीं फटकते. बल्कि जो आत्महत्या करना चाहते हैं, वे एक बार ओ३म् के उच्चारण का अभ्यास ४ दिन तक कर लें. उसके बाद खुद निर्णय कर लें कि जीवन जीने के लिए है कि छोड़ने के लिए!
ओ३म् के उच्चारण के आध्यात्मिक (रूहानी) लाभ :
 ओ३म् के स्वरुप में ध्यान लगाना सबसे बड़ा काम है. इससे अधिक लाभ करने वाला काम तो संसार में दूसरा है ही नहीं!

१. इसे करने से ईश्वर/अल्लाह से सम्बन्ध जुड़ता है और लम्बे समय तक अभ्यास करने से ईश्वर/अल्लाह को अनुभव (महसूस) करने की ताकत पैदा होती है.

२. इससे जीवन के उद्देश्य स्पष्ट होते हैं और यह पता चलता है कि कैसे ईश्वर सदा हमारे साथ बैठा हमें प्रेरित कर रहा है.
३. इस दुनिया की अंधी दौड़ में खो चुके खुद को फिर से पहचान मिलती है. इसे जानने के बाद आदमी दुनिया में दौड़ने के लिए नहीं दौड़ता किन्तु अपने लक्ष्य के पाने के लिए दौड़ता है.
४. इसके अभ्यास से दुनिया का कोई डर आसपास भी नहीं फटक सकता. मृत्यु का डर भी ऐसे व्यक्ति से डरता है क्योंकि काल का भी काल जो ईश्वर है, वो सब कालों में मेरी रक्षा मेरे कर्मानुसार कर रहा है, ऐसा सोच कर व्यक्ति डर से सदा के लिए दूर हो जाता है. जैसे महायोगी श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध के वातावरण में भी नियमपूर्वक ईश्वर का ध्यान किया करते थे. यह बल व निडरता ईश्वर से उनकी निकटता का ही प्रमाण है.
५. इसके अभ्यास से वह कर्म फल व्यवस्था स्पष्ट हो जाती है कि जिसको ईश्वर ने हमारे भले के लिए ही धारण कर रखा है. जब पवित्र ओ३म् के उच्चारण से हृदय निर्मल होता है तब यह पता चलता है कि हमें मिलने वाला सुख अगर हमारे लिए भोजन के समान सुखदायी है तो दुःख कड़वा होते हुए भी औषधि के समान सुखदायी है जो आत्मा के रोगों को नष्ट कर दोबारा इसे स्वस्थ कर देता है. इस तरह ईश्वर के दंड में भी उसकी दया का जब बोध जब होता है तो उस परम दयालु जगत माता को देखने और पाने की इच्छा प्रबल हो जाती है और फिर आदमी उसे पाए बिना चैन से नहीं बैठ सकता. इस तरह व्यक्ति मुक्ति के रास्तों पर पहला कदम धरता है!

ऊपर दिए लाभ पाने के लिए हमें करना चाहिए:

 यम नियमों का अभ्यास इसका सबसे बड़ा साधन है. यम व नियम संक्षेप से नीचे दिए जाते हैं

यम

१. अहिंसा (किसी सज्जन और बेगुनाह को मन, वचन या कर्म से दुःख न देना)
२. सत्य (जो मन में सोचा हो वही वाणी से बोलना और वही अपने कर्म में करना)
३. अस्तेय (किसी की कोई चीज विना पूछे न लेना)
४. ब्रह्मचर्य (अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना विशेषकर अपनी यौन इच्छाओं पर पूर्ण नियंत्रण)
५. अपरिग्रह (सांसारिक वस्तु भोग व धन आदि में लिप्त न होना)

नियम 

१. शौच (मन, वाणी व शरीर की शुद्धता)
२. संतोष (पूरे प्रयास करते हुए सदा प्रसन्न रहना, विपरीत परिस्थितियों से दुखी न होना)
३. तप (सुख, दुःख, हानि, लाभ, सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, डर आदि की वजह से कभी भी धर्म को न छोड़ना)
४. स्वाध्याय (अच्छे ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयास करना)
५. ईश्वर प्रणिधान (अपने सब काम ऐसे करना जैसे कि ईश्वर सदा देख रहा है और फिर काम करके उसके फल की चिंता ईश्वर पर ही छोड़ देना)

क्या यम नियम के पालन करने के अलावा सुबह शाम ध्यान करना चाहिए और उसकी क्या विधि है?


जरूर. यम नियम तो आत्मा रुपी बर्तन की सफाई के लिए है ताकि उसमें ईश्वर अपने प्रेम का भोजन दे सके. वह भोजन सुबह शाम एकाग्र मन के साथ ईश्वर से माँगना चाहिए. ओ३म् का उच्चारण इसी भोजन मांगने की प्रक्रिया है. अब क्या करना चाहिए वह नीचे लिखते हैं

१. किसी जगह जहाँ शुद्ध हवा हो, वहां अच्छी जगह पर कमर सीधी कर के बैठ जाएँ. आँख बंद करके थोड़ी देर गहरे सांस धीरे धीरे लीजिये और छोड़िये जिससे शरीर में कोई तनाव न रहे.
२. दिन में ४ बार ओ३म् का उच्चारण बहुत उपयोगी है. पहला सुबह सोकर उठते ही, दूसरा शौच व स्नान के बाद, तीसरा सूर्यास्त के समय शाम को और चौथा रात सोने से एकदम पहले. इसके अलावा जब कभी खाली बैठे किसी की प्रतीक्षा या यात्रा कर रहे हों तो भी इसे कर सकते हैं.
३. धीरे धीरे उच्चारण की लम्बाई बढ़ा सकते हैं, पर उतनी ही जितनी अपने सामर्थ्य में हो.                                                                 ४. कम से कम एक समय में ५ बार जरूर उच्चारण करें. मुंह से बोलने के बजाय मन में भी उच्चारण कर सकते हैं.                                       ५. अपने हर बार के उच्चारण में ईश्वर को पाने की इच्छा और उसके लिए प्रयास करने का वादा मन ही मन ईश्वर से करना चाहिए.                    ६. हर बार उठने से पहले यह प्रतिज्ञा करनी कि अगली बार बैठूँगा तो इस बार से श्रेष्ठ चरित्र का व्यक्ति होकर बैठूँगा. अर्थात हर बार उठने के बाद अपने जीवन का हर काम अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करते हुए करना. कभी ईश्वर को दी हुई प्रतिज्ञा नहीं तोड़ना. 
 जरूरी बात:
 ईश्वर ही सबका पालक, माता और पिता है. इसलिए कोई आदमी ईश्वर का ध्यान करते हुए किसी गुरु, पीर, बाबा आदि का ध्यान न करे. क्योंकि सब बाबा, गुरु, पीर आदि अपने भक्तों का ही उद्धार करते हुए दीखते हैं औरों का नहीं, और इसी से वे सब पक्षपाती सिद्ध होते हैं. किन्तु ईश्वर सबका पालक होने से पक्षपात आदि दोषों से दूर है और इसलिए केवल वही ध्यान करने और भजने योग्य है, और कोई नहीं.

मैं एक मुसलमान हूँ और तुम तो हमसे विरोध करते हो. फिर मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ?




१. जैसे हम पहले लिख चुके हैं कि ओ३म् में हिन्दू मुसलमान जैसी कोई बात नहीं. क्या कोई मुसलमान भाई/बहन केवल इसलिए आम खाने से इनकार कर सकता/सकती है कि कुरआन में इसका वर्णन नहीं या यह अरब देश में नहीं मिलता? ओ३म् तो एक ईश्वर/अल्लाह के गुणों को अपने में समेटे हुए है तो फिर दिक्कत क्या है?
२. हम कई बात में मुसलमानों से और वे कई बात में हमसे से इक्तलाफ (विरोध) कर सकते हैं. लेकिन फलसफे पर अलग राय होना कोई गलत बात तो नहीं. क्या आप अपनी अम्मी के हाथ की रोटी केवल इसलिए खानी बंद कर देते हो कि वो किसी मामले में आपसे जुदा राय रखती हैं? यदि नहीं तो अपने और भाइयों के सवालों या इक्तलाफ से आप उन्हें दुश्मन क्यों समझते हो?
३. जिस तरह बैठ कर आप नमाज पढ़ते हो, वह तरीका हमारे योग की किताबों में वज्रासन नाम से लिखा है. तो क्या आप नमाज भी पढना छोड़ देंगे? नहीं, जब ऐसी बात नहीं तो फिर ओ३म् में विरोध क्यों?
४. चलो अगर मान भी लिया कि आप हमसे नफरत करते हैं तो भी ओ३म् से नफरत क्यों? क्या आप हवाई जहाज, रेलगाड़ी, कार, कंप्यूटर, रेशम, फ़ोन आदि का प्रयोग नहीं करते जो ईसाइयों, हिन्दुओं, और यहूदियों ने बनायी हैं? यदि हाँ तो ओ३म् का विरोध क्यों?
५. और वैसे भी, बातचीत और सवाल जवाब तो अल्लाह/ईश्वर को और उस की इस कायनात को समझने का जरिया हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो अल्लाह हमारे अन्दर ये कुव्वत (शक्ति) ही नहीं देता कि हम सवाल कर सकें. तो इसलिए यह समझना चाहिए कि भाइयों का आपस में सवाल जवाब करना तो अल्लाह की इबादत करने जैसा ही है क्योंकि ऐसा करना हकपरस्ती (सत्य की खोज) की राहों पर कदम बढाने जैसा है.
६. तो मेरे अज़ीज़ भाई, कुछ भी हो, गुस्सा भी करो, हम पर सवाल भी करो, लेकिन जो सबके फायदे की चीज है, उस पर अमल जरूर करो. यही कामयाब जिंदगी का राज है.
७. नमाज के बाद तीन बार ओ३म् का जाप उसके मतलब के साथ करके देखें और ४ दिन बाद खुद फैसला कर लें कि जिन्दगी में कुछ बदलाव हुआ कि नहीं. इसे आप मन में भी इबादत करते वक़्त याद कर सकते हैं क्योंकि यह तो अल्लाह का ही नाम है.

अभी भी एक सवाल है. इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में केवल एक शब्द का उच्चारण करके क्या हो जाएगा? बल्कि ऐसा लगता है कि यह तो जिन्दगी की चुनौतियों से भागने का एक तरीका है!

 नहीं. ऐसा तब होता जब इसे करने के लिए जंगल जाने की शर्त होती! पर ऐसा नहीं है. युद्ध के मैदान में तलवार को निरंतर धार लगानी पड़ती है नहीं तो इसकी मार कम हो जाती है. ठीक इसी तरह, अगर एक घंटे धार लगा कर पूरे दिन के शत्रुओं पर विजय पायी जाए तो यह कोई घाटे का सौदा तो नहीं! और यही तो समय होता है कि जब व्यक्ति ईश्वर को दिए वादों पर सोच विचार करता है और तोड़े गए अपने वादों पर क्षमा याचना करके आगे से उन्हें ना तोड़ने का दृढ संकल्प करता है. पूरे दिन विपरीत परिस्थितियों से जूझता हुआ अगर लक्ष्य से थोडा भटक गया हो तो इसी समय फिर से वह खुद को लक्ष्य की ओर केन्द्रित करता है और फिर अगले दिन उसकी ओर बढ़ने के लिए घमासान करता है. अतः भावनापूर्ण ढंग से ईश्वर का ध्यान सब चुनौतियों को पार करवाने वाला सिद्ध होता है.
 अभी भी कुछ संदेह नहीं मिट रहे, क्या करूँ?
  जिस तरह हवा को देखने के बजाय स्पर्श से पहचाना जाता है उसी तरह करने योग्य बात को बोलकर अधिक समझाया नहीं जा सकता. तो स्वयं कुछ दिन इसका अभ्यास करें और फैसला कर लें!