Sunday, 30 March 2014

पूर्णागिरि में पूर्ण होती मनोकामना

     माँ पूर्णागिरी (पुन्यागिरी) : धर्म व आस्था का संगम

देवभूमि उत्तराखण्ड में स्थित अनेकों देवस्थलों में दैवीय-शक्ति व आस्था के अद्भुत केन्द्र बने पूर्णागिरि धाम की विशेषता ही कुछ और है। जहां अपनी मनोकामना लेकर लाखों लोग बिना किसी नियोजित प्रचार व आमन्त्रण के उमड पडते हैं जिसकी उपमा किसी भी लघु कुंभ से दी जा सकती है। टनकपुर से टुण्यास तक का सम्पूर्ण क्षेत्र जयकारों व गगनभेदी नारों से गूंज उठता है। वैष्णो देवी की ही भान्ति पूर्णागिरि मन्दिर भी सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहता है। हिन्दू हो या मुस्लिमए सिख हो या ईसाई, सभी पूर्णागिरि की महिमा को मन से स्वीकार करते हैं। देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है।समुद्रतल से लगभग 3 हजार फीट ऊंची धारनुमा चट्टानी पहाड के पूर्वी छोर पर सिंहवासिनी माता पूर्णागिरि का मन्दिर है जिसकी प्रधान पीठों में गणना की जाती है। संगमरमरी पत्थरों से मण्डित मन्दिर हमेशा लाल वस्त्रोंए सुहाग.सामग्रीए चढावाए प्रसाद व धूप-बत्ती की गंध से भरा रहता है। माता का नाभिस्थल पत्थर से ढका है जिसका निचला छोर शारदा नदी तक गया है। देवी की मूर्ति के निकट स्थित इस स्थल पर ही भक्तगण प्रसाद चढाते व पूजा करते हैं। मन्दिर में प्रवेश करते ही कई मीटर दूर से पर्वत शिखर पर यात्रियों की सुरक्षा के लिए लगाई गई लोहे के लंबे पाइपों की रेलिंग पर रंग-बिरंगी पोलोथीन पन्नियों व लाल चीरों को बंधा देकर यात्रीगण विस्मित से रह जाते हैं। देवी व उनके भक्तों के बीच एक अलिखित अनुबंध की साक्षी ये रंग-बिरंगी लाल-पीली चीरें आस्था की महिमा का बखान करती हैं। मनोकामना पूरी होने पर फिर मन्दिर के दर्शन व आभार प्रकट करने और चीर की गांठ खोलने आने की मान्यता भी है। टनकपुर से टुण्यास व मन्दिर तक रास्ते भर सौर ऊर्जा से जगमगाती ट्यूबलाइटें, सजी-धजी दुकानें, स्टीरियो पर गूंजते भक्तिगीत, मार्ग में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, देवी के छन्द गाती गुजरती स्त्रियों के समूह सभी कुछ जंगल में मंगल सा अनोखा दृश्य उपस्थित करते हैं। रात हो या दिन चौबीस घंटे मन्दिर में लंबी कतारें लगी रहती हैं। मस्तक पर लाल चूनर बांध या कलाई में लपेटे भूख प्यास की चिन्ता किए बिना जोर.जोर से जयकारे लगाते लोगों की श्रद्धा व आध्यात्मिक अनुशासन की अद्भुत मिसाल यहां बस देखते ही बनती है। चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य ऊंची चोटी पर अनादि काल से स्थित माता पूर्णागिरि का मन्दिर व वहां के रमणीक दृश्य तो स्वर्ग की मधुर कल्पना को ही साकार कर देते हैं। नीले आकाश को छूती शिवालिक पर्वत मालाएं, धरती में धंसी गहरी घाटियां, शारदा घाटी में मां के चरणों का प्रक्षालन करती कल-कल निनाद करती पतित पावनी सरयूए मन्द गति से बहता समीरए धवल आसमानए वृक्षों की लंबी कतारेंए पक्षियों का कलरव, सभी कुछ अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहते। चैत्र व शारदीय नवरात्र प्रारंभ होते ही लंबे.लंबे बांसों पर लगी लाल पताकाएं हाथों में लिए सजे धजे देवी के डोले व चिमटा, खडताल मजीरा, ढोलक बजाते लोगों की भीड से भरी मिनी रथ यात्राएं देखते ही बनती हैं। वैसे श्रद्धालुओं का तो वर्ष भर आवागमन लगा ही रहता है। यहां तक कि नए सालए नए संकल्पों का स्वागत करने भी युवाओं की भीड हजारों की संख्या में मन्दिर में पहुंच साल की आखिरी रात गा.बजा कर नए वर्ष में इष्ट मित्रों व परिजनों के सुखए स्वास्थ व सफलता की कामना करती हैं।

भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ला एकम् 31 मार्च को

भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ला एकम् 31 मार्च को
इसदिन से प्रारम्भ होगा विक्रम संवत 2071 !!
आओ स्वागत में जुट जायें। मेरा अपना नववर्ष !
आपका अपना नववर्ष !!घर घर भगवा पतायें लगायें।
रंगोली सजायें। दीपक जलायें। उत्सव आनंद मनायें।

स्वागतम् विक्रम संवत्
बिखरी रंग—बिरंगी छटाएँ और आतिशी नजारे
चैती एकम री निकली सवारी
भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण

 गुड़ी पड़वा : सृष्टि का जन्मदिवस !
नवसृजन के उत्सव का पर्व


फाल्गुन के जाने के बाद उल्लासित रूप से चैत्र मास का आगमन होता है। चहुंओर प्रेम का रंग बिखरा होता है। प्रकृति अपने पूरे शबाब पर होती है। दिन हल्की तपिश के साथ अपने सुनहरे रूप में आता है तो रातें छोटी होने के साथ ठंडक का अहसास कराती हैं। मन भी बावरा होकर दुनिया के सौंदर्य में खो जाने को बेताब हो उठता है।

यह अवसर है नवसृजन के नवउत्साह का, जगत को प्रकृति के प्रेमपाश में बांधने का। पौराणिक मान्यताओं को समझने व धार्मिक उद्देश्यों को जानने का। यही है नवसंवत्सर, भारतीय संस्कृति का देदीप्यमान उत्सव। चैत्र नवरात्रि का आगमन, परम ब्रह्म द्वारा सृजित सृष्टि का जन्मदिवस, गुड़ी पड़वा का विशेष अवसर।

भारतीय संस्कृति में गुड़ी पड़वा को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि से पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार की ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।

ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती हैं।

लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।

नववर्ष की शुरुआत का महत्व :-

नववर्ष को भारत के प्रांतों में अलग-अलग तिथियों के अनुसार मनाया जाता है। ये सभी महत्वपूर्ण तिथियां मार्च और अप्रैल के महीनों में आती हैं। इस नववर्ष को प्रत्येक प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। फिर भी पूरा देश चैत्र माह में ही नववर्ष मनाता है और इसे नवसंवत्सर के रूप में जाना जाता है।

गुड़ी पड़वा, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी, नवरेह, चेटीचंड, उगाड़ी, चित्रेय तिरुविजा आदि सभी की तिथि इस नवसंवत्सर के आसपास आती हैं। इसी दिन से सतयुग की शुरुआत मानी जाती है।

इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था। इसी दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है।

इतिहास के झरोखे में नवसंवत्सर
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

- पूजा मिश्रा
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा


भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्ष, लता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लास, उमंग तथा मादकाता का संचार करती है।

इस नव संवत्सर का इतिहास बताता है कि इसका आरंभकर्ता शकरि महाराज विक्रमादित्य थे। कहा जाता है कि देश की अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति और शांति को भंग करने के लिए उत्तर पश्चिम और उत्तर से विदेशी शासकों एवं जातियों ने इस देश पर आक्रमण किए और अनेक भूखंडों पर अपना अधिकार कर लिया और अत्याचार किए जिनमें एक क्रूर जाति के शक तथा हूण थे।

ये लोग पारस कुश से सिंध आए थे। सिंध से सौराष्ट्र, गुजरात एवं महाराष्ट्र में फैल गए और दक्षिण गुजरात से इन लोगों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया। शकों ने समूची उज्जयिनी को पूरी तरह विध्वंस कर दिया और इस तरह इनका साम्राज्य शक विदिशा और मथुरा तक फैल गया। इनके कू्र अत्याचारों से जनता में त्राहि-त्राहि मच गई तो मालवा के प्रमुख नायक विक्रमादित्य के नेतृत्व में देश की जनता और राजशक्तियां उठ खड़ी हुईं और इन विदेशियों को खदेड़ कर बाहर कर दिया।

इस पराक्रमी वीर महावीर का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगर उज्जयिनी में हुआ था जिनके पिता महेन्द्रादित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं। इस दंपत्ति ने पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान भूतेश्वर से अनेक प्रार्थनाएं एवं व्रत उपवास किए। सारे देश शक के उन्मूलन और आतंक मुक्ति के लिए विक्रमादित्य को अनेक बार उलझना पड़ा जिसकी भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस-पास करूर नामक स्थान पर हुई जिसमें शकों ने अपनी पराजय स्वीकार की।


इस तरह महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर एक नए युग का सूत्रपात किया जिसे विक्रमी शक संवत्सर कहा जाता है।

राजा विक्रमादित्य की वीरता तथा युद्ध कौशल पर अनेक प्रशस्ति पत्र तथा शिलालेख लिखे गए जिसमें यह लिखा गया कि ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की।

इतना ही नहीं शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी और अरब विजय के उपलक्ष्य में मक्का में महाकाल भगवान शिव का मंदिर बनवाया।

नवसंवत्सर का हर्षोल्लास

* आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि कहकर इस सत्य की उद्घोषणा की जाती है। वीर विक्रमादित्य की विजय गाथा का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उल ओकुल' में किया है।

उन्होंने लिखा है वे लोग धन्य हैं जिन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के समय जन्म लिया। सम्राट पृथ्वीराज के शासन काल तक विक्रमादित्य के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित रही जो बाद में मुगल काल के दौरान हिजरी सन् का प्रारंभ हुआ। किंतु यह सर्वमान्य नहीं हो सका, क्योंकि ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धांत का मान गणित और त्योहारों की परिकल्पना सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण का गणित इसी शक संवत्सर से ही होता है। जिसमें एक दिन का भी अंतर नहीं होता।

* सिंधु प्रांत में इसे नव संवत्सर को 'चेटी चंडो' चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा जाता है जिसे सिंधी हर्षोल्लास से मनाते हैं।

* कश्मीर में यह पर्व 'नौरोज' के नाम से मनाया जाता है जिसका उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वर्ष प्रतिपदा 'नौरोज' यानी 'नवयूरोज' अर्थात्‌ नया शुभ प्रभात जिसमें लड़के-लड़कियां नए वस्त्र पहनकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

* हिंदू संस्कृति के अनुसार नव संवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मां भगवती से सुख-शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं।

* इस तरह भारतीय संस्कृति और जीवन का विक्रमी संवत्सर से गहरा संबंध है लोग इन्हीं दिनों तामसी भोजन, मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं।

किस प्रकार हिन्दू नववर्ष ईसाई नववर्ष से श्रेष्ठ है ?

एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है । इसे रोम के सम्राट जुलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया । भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेजी शासको ने 1752 में किया  । 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18 वीं शताब्दी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी । जनवरी से जून रोमन के नामकरण रोमन जोनस,मार्स व मया इत्यादि के नाम पर हैं । जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उसके पौत्र आगस्टन के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासो के आधार पर रखे गये हैं ।
आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहो और नक्षत्रो की स्थिती पर आधारित होनी चाहिए ।

स्वतंत्रता प्राप्ती के पश्चात नवम्बर 1952 में वैज्ञानिको और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी । समिति के 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रम संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की । किन्तु, तत्कालिन प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन केलेण्ड़र को ही राष्ट्रीय केलेण्ड़र के रूप में स्वीकार लिया गया ।


ग्रेगेरियन केलेण्ड़र की काल गणना मात्र दो हजार वर्षो की अतो अल्प समय को दर्शाती है । जबकि यूनान की काल गणना 1582 वर्ष, रोम की 2757 वर्ष, यहूदी 5768, मिस्त्र की 28691, पारसी 198875 तथा चीन की 96002305 वर्ष पुरानी है । इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 110 वर्ष है । जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं । हमारे प्राचीन ग्रंथो में एक एक पल की गणना की गई है ।

जिस प्रकार ईस्वी संवत् का सम्बन्ध ईसा से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मोहम्मद से है । किन्तु विक्रम संवत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न होकर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रम्हाण्ड़ के ग्रहो व नक्षत्रो से है । इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है । इतना ही नहीं, ब्रम्हाण्ड़ के सबसे पुरातन ग्रंथो वेदो में भी इसका वर्णन है । नव संवत् यानि संवत्सरो का वर्णन यजूर्वेद के 27 वें व 30 वें अध्याय ले मंत्र क्रमांक क्रमशः 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है । विश्व को सौर मण्ड़ल के ग्रहों व नक्षत्रो की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिती पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग पर आधारित है ।

इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्यात्य देशो के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारंभ करने की बात हो हम एक कुशल पंड़ित के पास जाकर शुभ मुहूर्त पुछते हैं । और तो और, देश के बड़े से बड़े राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतज़ार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचाग पर आधारित होता है । भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम शुभ मुहूर्त में किया जाए तो उसकी सफलता में चार चाँद लग जाते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय नववर्ष मनाना ईसाई नववर्ष मनाने से पुर्णरूपेण श्रेष्ठ है ।


विज्ञान की नजर में रुद्राक्ष की महिमा

एक किंवदंती के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई है। शिव का यही प्रिय रुद्राक्ष अब वैज्ञानिकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र हो गया है और देश-विदेश में इस पर रूद्राक्ष पर शोध अनुसंधान जारी है।
रुद्राक्ष को नीला संगमरमर भी कहा जाता है। इसके वृक्ष भारत (पूर्वी हिमालय) के साथ-साथ नेपाल, इंडोनेशिया, जकार्ता एवं जावा में भी पाए जाते हैं। वनस्पतिशास्त्र में इसे इलियोकार्पस गेनिट्रस कहते हैं। गोल, खुरदुरा, कठोर एवं लंबे समय तक खराब न होने वाला रुद्राक्ष एक बीज है। बीज पर धारियां पाई जाती हैं जिन्हें मुख कहा जाता है। पांचमुखी रुद्राक्ष बहुतायात से मिलता है जबकि एक व चौदह मुखी रुद्राक्ष दुर्लभ हैं।
प्राचीन ग्रंथों में इसे चमत्कारिक तथा दिव्यशक्ति स्वरूप बताया गया है। मान्यताओं के अनुसार रुद्राक्ष धारण करने से दिल की बीमारी, रक्तचाप एवं घबराहट आदि से मुक्ति मिलती है। रुद्राक्ष के बताए चमत्कारिक गुण वास्तविक हैं या नहीं यह जानने हेतु देश-विदेश मेंकई शोध कार्य किए गए एवं कई गुणों की पुष्टि भी हुई।
सेंट्रल काउंसिल ऑफ आयुर्वेदिक रिसर्च नई दिल्ली में 1966 में आयुर्वेदिक औषधि में प्रकाशित किया गया जिसमें रुद्राक्ष थैरेपी की चर्चा की गई थी। अस्सी के दशक में बनारस के इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने डॉ. एस. राय के नेतृत्व में रुद्राक्ष पर अध्ययन कर इसके विद्युत चुंबकीय, अर्धचुंबकीय तथा औषधीय गुणों को सही पाया।
वैज्ञानिकों ने माना है कि इसकी औषधीय क्षमता विद्युत चुंबकीय प्रभाव से पैदा होती है। रुद्राक्ष के विद्युत चुंबकीय क्षेत्र एवं तेज गति की कंपन आवृत्ति स्पंदन से वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं। इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी फ्लोरिडा के वैज्ञानिक डॉ. डेविड ली ने अनुसंधान कर बताया कि रुद्राक्ष विद्युत ऊर्जा के आवेश को संचित करता है जिससे इसमें चुंबकीय गुण विकसित होताहै। इसे डाय इलेक्ट्रिक प्रापर्टी कहा गया। इसकी प्रकृति इलेक्ट्रोमैग्नेटिक व पैरामैग्नेटिक है एवं इसकी डायनामिक पोलेरिटी विशेषता अद्भुत है।
भारतीय वैज्ञानिक डॉ. एस.के. भट्टाचार्य ने 1975 में रुद्राक्ष के फार्माकोलॉजिकल गुणों का अध्ययन कर बताया कि कीमोफार्माकोलॉजिकल विशेषताओं के कारण यह हृदयरोग, रक्तचाप एवं कोलेस्ट्रॉल स्तर नियंत्रण में प्रभावशाली है। स्नायुतंत्र (नर्वस सिस्टम) पर भी यह प्रभाव डालता है एवं संभवत: न्यूरोट्रांसमीटर्स के प्रवाह को संतुलित करता है।
वैज्ञानिकों द्वारा इसका जैव-रासायनिक (बायो कैमिकल) विश्लेषण कर इसमें कोबाल्ट, जस्ता, निकल, लोहा, मैग्नीज़, फास्फोरस, एल्युमिनियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटैशियम, सिलिका एवं गंधक तत्वों की उपस्थिति देखी गई। इन तत्वों की उपस्थिति से घनत्व बढ़ जाता है एवं इसी के फलस्वरूप पानीमें रखने पर यह डूब जाता है।
पानी में डूबने वाले रुद्राक्ष को असली माना जाता है, कुछ लोग यह भी मानते हैं कि दो तांबों के सिक्कों के मध्यरखने पर यदि इसमें कंपन होता है, तो यह असली है। असल में इस कंपन का कारण विद्युत चुंबकीय गुण तथा डायनामिक पोलेरिटी हो सकता है। जैव वैज्ञानिकों ने रुद्राक्ष में जीवाणु (बैक्टीरिया), विषाणु (वायरस), फफूंद(फंगाई) प्रतिरोधी गुणों को पाया है। कुछ कैंसर प्रतिरोधी क्षमता का आकलन भी किया गया है।
चीन में हुए खोज कार्य दर्शाते हैं कि रुद्राक्ष यिन-यांग एनर्जी का संतुलन बनाए रखने में कारगर है। दुनियाभर के वैज्ञानिक रुद्राक्ष के इतने सारे गुणों को एक साथ देखकर आश्चर्यचकित हैं।

Saturday, 29 March 2014

Purnagiri Temple


Punya Parvat
Name :  Purnagiri Temple.  Also known as Punyagiri (meaning the mountain of good deeds).

Location :

Purnagiri Devi Temple is located on the top of hill and is 20kms from Tanakpur located in the Pithoragarh district of Uttarakhand. It is located on the right bank of the river kali.

Purnagiri Devi Temple
Legend :

According to legend, at some time in the Satya Yuga, Daksha performed a yagna (named Vrihaspati) with a desire of taking revenge on Lord Shiva. Daksha was angry because his daughter Sati had married the 'yogi' God Shiva against his wishes. Daksha invited all the deities to the yagna except for Shiva and Sati. The fact that she was not invited did not deter Sati from attending the yagna. She had expressed her desire to attend to Shiva who had tried his best to dissuade her from going. Shiva eventually allowed her to go escorted by his ganas (followers).

But Sati, being an uninvited guest, was not given any respect. Furthermore, Daksha insulted Shiva. Sati was unable to bear her father's insults toward her husband, so she committed suicide by jumping into the yajna fire.

Enraged at the insult and the injury, Shiva destroyed Daksha's sacrifice, cut off Daksha's head, and replaced it with that of a goat as he restored him to life. Still crazed with grief, he picked up the remains of Sati's body, and danced the dance of destruction through the Universe. The other gods intervened to stop this dance, and the Vishnu's disk, or Sudarshana Chakra, cut through the corpse of Sati. The various parts of the body fell at several spots all through the Indian subcontinent and formed sites which are known as Shakti Peethas today.

In Purnagiri the Naabhi (Naval) part of Sati fell and people come here to worship the devi here.

Description :
 
From Purnagiri, also known as Punyagiri, the river Kali descends into the plains and is known as Sharda. For visiting this shrine, from Tanakpur,there is a motorable road till the Thulligad which is located at about 14 Kms from Tanankpur. Different types of public transport are available from Tanakpur to Thulligad. From Thulligad the road for reaching upto Tunyas is under construction. People go on foot from Thulligad to Purnagiri temple. After the ascent of Bans ki Charhai comes Awalakhan (the new name is Hanuman Chatti).

The south - western part of 'Punya Parvat'(Purna giri) can be seen from this place. Various temporary shops and huts are present on the road from Hanuman Chatti till Tunyas. On the way there are various dharamshalas and hotels etc where people can have rest for few hours, get fresh and can have snacks or meals.
 
Maa Kali Temple
From Tunyas,the Maa Purnagiri temple is about 3 Kms. Form here after walking some distance the 'Baans Ki Chadai' starts which is now made convenient by the stairs and iron railing.
 
From the highest point (the temple) of Purnagiri hill the pilgrim can see the expanse of Kali, its islands, the township of Tanakpur and a few Nepali villages. The old Buram Deo Mandi is very close to Purnagiri. From Tanakpur or Purnagiri it is possible to trek to Tamli and even to Jhulaghat along the Kali river. jai matadi.
 
It is not advisable to visit here during rainy season as there are frequent landslides in the hills and the path to temple is not well maintained during this season.

As per a common belief, every person who comes here with sincere faith and devotion has his prayers answered. The pilgrims flock to Purnagiri temple during the navratras and tie a tread to take a wish. If their wish gets fulfilled, the pilgrims come back and untie the threads. 
 

Festivals :

The Purnagiri temple is visited by thousands of devotees throughout the year. The temple fair is organized between the months of Poush and Chaitra (March) during which the entire valley of Punyagiri reverberates with the sound of chants, hymns and devotional songs.

During Navratras, in the Chaitra month of the Indian calendar (in the month of March  - April), the temple of Purnagiri organises Purnagiri Mela. After worshipping Mata Purnagiri, people also pay their tributes to her loyal devotee Bada Sidth Nath at Brahmadev and Mahendra Nagar in Nepal.
 
Every year, a fair is organized on Vishuwat Sankranti, which continues for about forty days. Next to the Holi festival, the longest fair of Kumaon.

Facilities: 
During the chaitra navratra mela, basic amenities like medicines,hospital,telephone etc are available. The nearest petrol pump is in Tanakpur, 20 Km from here.

Other Information:

Altitude:3000 Mts.

Climate: Cold in winters, Pleasant in Summers.

Clothing: Summer cottons, Winter Heavy Woollens.

Season: Round the year.

Language: Kumaoni, Hindi.

Accessibility:

Air: Nearest Air port is Pant Nagar, 121 kms. (via Khatima Nanakmatta)

Rail: Nearest Railhead is Tanakpur, 20 Kms.

Road:Motorable road exists upto Thuligad, 14 Kms. from Tanakpur. Thereafter, the road is under construction upto Tunyas (Kms.). From here, a 3 Kms. trek leads to Purnagiri.

"हिन्दू है हिन्दू ही रहेंगे, नव वर्ष की शुभकामनाएं गुढी पडवा को ही देंगे..!!!"

मित्रो जनवरी से नया साल क्यों शुरू नहीं करना चाहिए इसका मैं आपको ऐतिहासिक तथ्य बताने जा रहा हूँ कृपया पूरा लेख पढ़े फिर तय करे और अपने मित्रो को बताये ...!!!
"हिन्दू है हिन्दू ही रहेंगे, नव वर्ष की शुभकामनाएं गुढी पडवा को ही देंगे..!!!"
"हिंदू आहे हिंदूच राहणार, नवीन वर्षाच्या शुभेच्छा गुढीपाडव्यालाच देणार !!
विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में एक नहीं दो नहीं, बल्कि अनेक नववर्ष मनाए जाते हैं. यहां के अलग-अलग समुदायों के अपने-अपने नववर्ष हैं. अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है. इस दिन ईसा मसीह का नामकरण (यीशु की सुन्नत {सुन्नत या खतना से मतलब जननांग या लिंग की उपरी चमड़ी को काटना है लिंगमुंडच्छद } से एक घटना है जीवन के नासरत का यीशु के अनुसार ल्यूक के सुसमाचार, जो कविता में राज्यों 2:21 कि यीशु था खतना के आठ दिन बाद उसके जन्म (पारंपरिक रूप से 1 जनवरी). यह ध्यान में रखते हुए Halakha , यहूदी कानून है जो मानती है कि पुरुषों का खतना आठ दिन जन्म के बाद एक ब्रिट milah समारोह के दौरान, जिस पर वे भी कर रहे हैं उनके नाम दिया है. मसीह का खतना एक बहुत ही आम विषय बन गया ईसाई कला 10 वीं सदी के बाद, एक में कई घटनाओं के से मसीह के जीवन के लिए अक्सर कलाकारों द्वारा चित्रित किया. यह शुरू में बड़े चक्र में एक दृश्य के रूप में ही देखा गया था, लेकिन पुनर्जागरण द्वारा एक चित्रकला के लिए एक व्यक्ति के विषय के रूप में इलाज किया जा सकता है, या एक में मुख्य विषय के रूप में altarpiece.घटना के रूप में मनाया जाता है सुन्नत का पर्व में पूर्वी रूढ़िवादी चर्च 1 जनवरी में जो भी कैलेंडर (पुरानी या नई ) प्रयोग किया जाता है, और भी कई द्वारा एक ही दिन मनाया एंग्लिकन . यह मनाया जाता है रोमन कैथोलिक के रूप में यीशु के पवित्र नाम के पर्व , हाल के वर्षों में 3 जनवरी को एक के रूप में वैकल्पिक स्मारक, हालांकि यह लंबे समय के लिए 1 जनवरी को मनाया था, के रूप में कुछ अन्य चर्चों के अभी भी है. होने का दावा अवशेष का एक संख्या पवित्र लिंगमुंडच्छद ,चमड़ी यीशु के सामने है.) हुआ था. दुनियाभर में इसे धूमधाम से मनाया जाता है.
हिंदुओं का नववर्ष ही नहीं दुनिया के अधिकाँश धर्मो व सम्प्रदायों का भी नववर्ष चैत्र अर्थात मार्च से शुरू होता है .
बेबीलोन नव वर्ष के बाद पहली नई चंद्रमा के साथ शुरू हुआ वसंत विषुव. प्राचीन समारोह ग्यारह दिनों के लिए चली. [14]
नव (नया) वर्षा (वर्ष) भारत में विभिन्न क्षेत्रों में मार्च - अप्रैल में मनाया जाता है.
में नव वर्ष दिवस सिख Nanakshahi कैलेंडर में 14 मार्च को है .
ईरानी नव वर्ष ,
बुलाया Nowruz युक्त दिन का सही समय वसंत विषुव , जो आमतौर पर 20 या 21 मार्च को होता है, वसंत के मौसम के शुरू शुरू . पारसीनव वर्ष के साथ मेल खाता ईरानी नव वर्ष Nowruz है, और द्वारा मनाया पारसी भारत में और दुनिया भर में पारसी और फारसियों द्वारा . बहाई कैलेंडर , नया साल 21 मार्च को वसंत विषुव पर होता है, बहाई धर्म में नया वर्ष ‘नवरोज’ हर वर्ष 21 मार्च को शुरू होता है. बहाई समुदाय के ज्यादातर लोग नव वर्ष के आगमन पर 2 से 20 मार्च अर्थात् एक महीने तक व्रत रखते हैं. और कहा जाता है Naw Rúz . ईरानी परंपरा Kazakhs उज़बेक, और Uighurs सहित मध्य एशियाई देशों के लिए भी किया गया था पर पारित किया है, और वहाँ के रूप में जाना जाता है Nauryz. यह आमतौर पर 22 मार्च को मनाया जाता है.
बाली नया साल, शक कैलेंडर (कैलेंडर बाली - जावानीस) पर आधारित है, कहा जाता है Nyepi, और यह बाली के चंद्र नव वर्ष पर बदल जाता है (मार्च 26 , 2009). यह चुप्पी के एक दिन है, उपवास, और ध्यान: 6 बजे से मनाया जब तक 6 अगली सुबह हूँ, Nyepi एक दिन आत्म प्रतिबिंब के लिए आरक्षित है और जैसे, कुछ भी है कि उस उद्देश्य के साथ हस्तक्षेप कर सकता है प्रतिबंधित है. हालांकि Nyepi एक मुख्य रूप से हिंदू छुट्टी, बाली की गैर - हिंदू निवासियों चुप्पी के दिन के रूप में अच्छी तरह से अपने साथी नागरिकों के लिए सम्मान के बाहर, निरीक्षण. यहां तक कि पर्यटकों को मुक्त नहीं कर रहे हैं, मुक्त करने के लिए कर के रूप में वे अपने होटल के अंदर इच्छा हालांकि, कोई भी समुद्र तटों या सड़कों पर अनुमति दी है, और बाली में केवल हवाई अड्डे पूरे दिन के लिए बंद रहता है. केवल दी अपवाद आपातकालीन जीवन धमकी स्थितियों और महिलाओं के साथ उन लोगों को ले जाने के बारे में जन्म देने के लिए वाहनों के लिए कर रहे हैं
तेलुगु नव वर्ष आम तौर पर मार्च या अप्रैल के महीने में बदल जाता है. के लोगों को आंध्र प्रदेश , भारत इन महीनों में नव वर्ष दिवस के आगमन का जश्न मनाने. इस दिन पूरे आंध्र प्रदेश भर में उगादि (जिसका अर्थ है एक नए वर्ष के शुरू) के रूप में मनाया जाता है. पहले महीने चैत्र Masam है. Masam महीने का मतलब है.
कश्मीरी कैलेंडर, Navreh (नव वर्ष): 5083 Saptarshi/2064 ई. Vikrami/2007-08, 19 मार्च. कश्मीरी ब्राह्मणों के इस पवित्र दिन कई सदियों के लिए मनाया गया.
गुडी Padwa के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है हिंदू वर्ष महाराष्ट्र , भारत के लोगों द्वारा. इस दिन मार्च या अप्रैल में बदल जाता है और के साथ मेल खाता है उगादि . (देखें: डेक्कन )
उगादि , कन्नड़ नव वर्ष के लोगों द्वारा मनाया जाता है नए साल की शुरुआत के रूप में कर्नाटक, भारत के अनुसार हिंदू कैलेंडर है. नव वर्ष के पहले महीने चैत्र.
सिन्धी का त्योहार चेती चांद एक ही दिन मनाया जाता है के रूप में उगादि / गुड़ी Padwa सिन्धी नव वर्ष के उत्सव के निशान.
Thelemic नया साल 20 मार्च को आमतौर पर एक मंगलाचरण के साथ मनाया जाता है रा हूर - Khuit की शुरुआत के उपलक्ष्य में नई कल्प 1904 में. यह भी बाईस दिन Thelemic पवित्र मौसम है, जो के लेखन के तीसरे दिन पर समाप्त होता है है की शुरुआत के निशान कानून की पुस्तक है. इस तिथि को भी सुप्रीम अनुष्ठान के पर्व के रूप में जाना जाता है. कुछ का मानना है कि Thelemic नव वर्ष 19 या तो 20 या 21 मार्च को गिरता है, वसंत विषुव के आधार पर कर रहे हैं, यह परमेश्वर है जो प्रत्येक वर्ष के वसंत विषुव पर आयोजित किया जाता है की स्थापना को मनाने के विषुव के लिए पर्व है 1904 में Thelema.1904 में वसंत विषुव 21 पर था और यह दिन था Aleister Crowley के बाद अपने Horus प्रार्थना है कि नए कल्प और Thelemic नव वर्ष पर लाया समाप्त हो गया
नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है. इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी. गुजराती 9 नवंबर को नववर्ष ‘बस्तु वरस’ मनाते हैं.
अलग-अलग नववर्षों की तरह अंग्रेजी नववर्ष के 12 महीनों के नामकरण भी बेहद दिलचस्प है.
जनवरी :
रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है और दूसरे से अगले वर्ष को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया.
फरवरी :
इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत' . पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं. जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं तब यह साल का आखरी महीना था और इसमें ३० दिन होते थे अगस्त का महीना भी ३० दिनों का था लेकिन जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया. एक और विडम्बना इस महीने से जुडी है जब आगस्टस सीजर ने देखा की जुलाई में ३१ दिन है तो उसने इस माह को भी ३१ दिनों का कर दिया इसे ३१ दिनों का करने के लिए साल के आखरी महीने फैबरा से १ दिन छीन लिया .
मार्च :
रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. सर्दियों का मौसम खत्म होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे इसलिए इस महीने को मार्च रखा गया.
अप्रैल :
इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई. इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह बसंत का आगमन होता था इसलिए शुरू में इस महीने का नाम एप्रिलिस रखा गया. इसके बाद वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफी दूर होता चला गया. वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया.
मई :
रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं. मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है.
जून :
इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे. इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ. एक अन्य मान्यता के मुताबिक रोम में सबसे बड़े देवता जीयस की पत्नी जूनो के नाम पर जून का नामकरण हुआ.
जुलाई :
राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई. इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया.
अगस्त :
जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया.
सितंबर :
रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था. सेप्टैंबर में सेप्टै लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात और बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां, लेकिन बाद में यह नौवां महीना बन गया.
अक्टूबर :
इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे, लेकिन दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा.
नवंबर :
नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा.
दिसंबर :
इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का बारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला.
सितम्बर अक्तूबर नवम्बर व दिसम्बर महीनो से पता चलता है की वे क्रमशः सातवां ,आठवां ,नौवा व दसवां महीना थे जनवरी ग्यारहवां व फरवरी बारहवां महीना था और मार्च से नववर्ष शुरू होता था और दुनिया के अधिकाँश धर्म मार्च (चैत्र ) में अपना नववर्ष शुरू करते थे लेकिन रोमन कैथोलिक पादरियों द्वारा इसे ईसा मसीह का नामकरण (यीशु की सुन्नत से एक घटना है से जोड़ कर साल का पहला महीना कर दिया . जिसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है .और हम मुर्ख लोग उनका अनुकरण करने लगे . दुनिया के अधिकाँश देशो ने इसे १४वी शताब्दी के बाद इसे अपनाया है .
अब आप ही तय करे की क्या सच है
1 जनवरी को नए साल के रूप में मनाने की शुरुआत निम्नानुसार हैं:
देश प्रारंभ साल [19] [20]
यूक्रेन , लिथुआनिया , बेलारूस 1362
वेनिस 1522
स्वीडन 1529
पवित्र रोमन साम्राज्य (जर्मनी ~) 1544
स्पेन, पुर्तगाल, पोलैंड 1556
Prussia , डेनमार्क [21] और नॉर्वे 1559
फ़्रांस ( रूस्सिल्लॉन के फतवे ) 1564
दक्षिणी नीदरलैंड [22] 1576
लोरेन 1579
डच गणराज्य 1583
स्कॉटलैंड 1600
रूस 1700
Tuscany 1721
ब्रिटेन , आयरलैंड और
ब्रिटिश साम्राज्य
छोड़कर स्कॉटलैंड 1752
ग्रीस 1923
थाईलैंड 1941

Monday, 10 March 2014

Jai ho "जय हो": कुदरत का एक चमत्कार जो ना कभी सुना ना देखा::

Jai ho "जय हो": कुदरत का एक चमत्कार जो ना कभी सुना ना देखा::: 20 साल के अंतराल पर खिलते हैं यह फूल  कहा जाता है कि नारीलता फूल पौधा भारत में हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है. और वे 20 साल...

Wednesday, 5 March 2014

Other Crustaceans


Crabs aren't the only crustaceans in the sea! Barnacles are small, rounded animals generally found on rocky reefs or shores. They are also seen attached to boats.
Barnacles have a hard shell, and use their 'feet' to capture small animals called plankton that swim in the oceans. They usually live in large groups, and are sometimes covered up by other sea life. Most barnacles look like rocks, but some, like the Short-stalked Goose Barnacle, are much prettier.
Shrimp are also crustaceans. Like crabs, shrimp live near rocks and reefs. They have a longer body rather than a round one, and range from less than an inch to 6 inches in length. Grabham's Cleaner Shrimp has a very important job. It attracts fish with its white antennae and legs. When the fish gets close, it grabs the fish and removes parasites and cleans the fish!
There are many other types of crustaceans, like prawns and lobsters.

Monday, 3 March 2014

Life

What is life? Why is there life on Earth, but not on any other planets in the solar system (as far as we know…). Life on Earth occurs in a bewildering array of forms – plants, animals, fungi, protists, and bacteria, which together compose Earth’s biosphere. The biosphere is connected to the Earth System through biogeochemical cycles. Explore the links in this section to learn more about the stuff life is made of, genetics, the diversity of living things, how they coexist in ecosystems and evolve over time, and how life survives in extreme environments.

 The living things that survive in the open ocean need to have a way to float or swim in ocean water. In the open ocean there are many types of swimmers including fish,whales, and sharks. Some fish, such as herring and tuna, swim in schools while others swim alone. Whales strain plankton from the sea or they eat fish.
Courtesy of NOAA

 Autotrophs are organisms that can "make their own food" from an inorganic source of carbon (carbon dioxide) given a source of energy. Most autotrophs use sunlight in the process of photosynthesis to make their own food. Alga (singular of algae) is an an autotroph because it is capable of photosynthesis.
Image courtesy of Corel Photography

 Why did the dinosaurs go extinct? No one knows for sure, and scientists have come up with a number of theories to explain why the dinosaurs suddenly died out about 65 million years ago. It wasn't just the dinosaurs that went extinct--roughly two thirds of all of the plant and animal species on Earth disappeared, too!
Image courtesy of the National Science Foundation.

Photosynthesis is the name of the process by which autotrophs (self-feeders) convert watercarbon dioxide, and solar energy into sugars and oxygen. It is a complex chemical process by which plants and other autotrophs create the energy needed for life.
Image has been released into public domain (found on wikipedia.org). 

 Plankton are a diverse set ofmarine organisms. They can live in salt and fresh water. Although some forms are able to move independently, most plankton drift with the water currents. This photo shows an amphipod, a type of plankton, at high magnification.
Image courtesy of Uwe Kils. Creative Commons Attribution ShareAlike 3.0 License.

 Hydrothermal vents in the deep ocean are located at tectonicspreading ridges. While most of the water in the deep ocean is close to freezing, the water at hydrothermal vents is very hot and laden with chemicals.  In thisextreme environment, certain species of Archaea andEubacteria thrive, enabling a unique food chain including fish, shrimp, giant tubeworms, mussels, crabs, and clams.
Courtesy of NASA

The Origin of Life on Earth

How did life begin on Earth? Though no one is ever likely to know the whole story, virtually everyone has wondered at one time or another, how life on Earth began.

There are at least three types of hypotheses which attempt to explain the origin of life on Earth. The first and oldest of these hypotheses suggest that life was created by a supreme being or spiritual force. Most cultures and religions have their own explanations of creation that are passed down from generation to generation. Because these ideas cannot be proved nor disproved, we consider them outside the boundaries of science. For that reason, they will not be pursued here and are left to each individual to decide.

The second set of hypotheses suggest that life began in another part of the universe and arrived on Earth by chance, such as with the crash of a comet or meteor.

The third, and most common hypothesis in the scientific community, is that life began approximately 3.5 billion years ago as the result of a complex sequence of chemical reactions that took place spontaneously in Earth's atmosphere. In the 1950's, two biochemists conducted an experiment which showed that certain molecules of life (amino acids) could form spontaneously when the conditions of Earth's early atmosphere were recreated in the lab. It is assumed that over time, these molecules interacted with one another eventually leading to the earliest forms of life.

Saturday, 1 March 2014

Sharks


When someone hears the word "shark", they usually think of a mean, scarry monster that eats everything it sees. The movie Jaws helped create this fear. But in real life, sharks aren't so mean. Actually, they are usually more scared of us than we are of them!
The great white shark is probably the most famous of all the species. The great white can grow over 25 feet long! It's a good thing humans aren't the great white's favorite meal. Instead, they enjoy sea lions and other sea life. There are not very many great white sharks alive today.
A more common shark is the blue shark. It is much smaller in length and not as fierce as the great white. Blue sharks can be found all over the world, and are often seen near the surface.
The nurse shark is a lesser known species. It is very lazy, and is usually found on the ocean floor. The nurse shark grows to about 8 feet in length, and preys on shellfish. The horn shark is similar to the nurse. It is very timid, and doesn't grow longer than 4 feet. It hides under rocks during the day and comes out at night to feed on fish and crustaceans.
Finally, the largest shark and fish in the world is the giant whale shark. The whale shark can grow over 40 feet long! But don't let its size scare you. The whale shark only eats plankton, which are small organisms floating in the water.

Living Things Get Energy from Different Sources


We all know that living organisms need food to survive. Life forms, however, do not all eat the same things. Autotrophs, known as *self-feeders* are organisms which create "food" using energy from the sun, thermal energy from the Earth, or other such means to feed themselves. All members of the kingdomplantae are autotrophs. Heterotrophs, known as *other-feeders* are beings which feed themselves by eating other creatures, plants, or foods which exist outside of themselves. All members of the kingdoms animalia andfungi are heterotrophs. On Earth, nature provides the following three mechanisms for living creatures to be supplied with energy.

What is Life?

What is life? Does this sound like a strange question to you? Of course we all know what is meant by the word "life", but how would you define it?

Do all living things move? Do they all eat and breathe? Even though we all seem to know what is meant by saying something is "alive", it's not very easy to describe what "life" is. It's almost as hard as describing where life came from.

Even the biologists (people who study life) have a tough time describing what life is! But after many years of studying living things, from the mold on your old tuna sandwich to monkeys in the rainforest, biologists have determined that all living things do share some things in common:

1) Living things need to take in energy
2) Living things get rid of waste
3) Living things grow and develop
4) Living things respond to their environment
5) Living things reproduce and pass their traits onto their offspring
6) Over time, living things evolve (change slowly) in response to their environment

Therefore, in order for something to be considered to "have life" as we know it, it must possess these characteristics.