वैद्यराज कविराज जीतराम शास्त्री
ईरान देश में पढ़ाया जाने वाला इतिहास जो ऋषि दयानंद की मान्यता के अनुसार आर्यों का उद्गम स्थान त्रिविष्ठम (तिब्बत प्रदेश है) यहीं सर्वश्रेष्ठ ऊंचे और प्रथम निर्मित पठारीय भूभाग पर मानव सरोवर मानसरोवर पर प्रथम मानव की उत्पत्ति सर्वमान्य प्रमाण है कालांतर में तिब्बत का नाम हूण प्रदेश भी था। यही श्वेत हूण। आर्य कहलाए। यही से यह लोग मैदानों की तरफ ईरान मिश्र आदि देशों की तरफ जाकर बस गये थे। जिस समय कनिष्क कुषाण सम्राट ईरान से अफगानिस्तान से संगोलिया तक एक छत्र शासन कररहा था। उस समय यह हूंण यत्र तत्र चले गये होंगे, यह बतलाना आवश्यक है कि मंगोलियन हूण श्वेत हूणों से कुछ भिन्न थे जो चीन में लूटपाट करते थे। इनके भय से चीन की दीवाल बनी थी, मुझ लेखक के गुरू स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ आर्य विद्वान सुप्रसिद्घ इतिहासकार की पुस्तक गुर्जर राष्ट्र के प्रष्ठ संख्या 26 एवं अन्य इतिहासकारों के अनुसार गुर्जरों का श्वेत हूणें से संबंध था इस भ्रांति के संदर्भ में गुरूजी का कहना यह था कि सृष्टि के आरंभ में आदित्य अंगीरा और अग्नि वायु नाम के ऋषियों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि देव पुरूषों को अपनी पाठशाला में पढ़ाया और यह पढ़कर गुरूतर एवं अभय अंधकार से परे हो गये थे और प्रकृति के बीच दैनिक कार्य करने लगे थे और मानव विकास करने लगा था। कालांतर में घनी आबादी को वर्ण विभाग में बांटने की आवश्यकता हुई और गुण कमीनुसार यह गुरूतर आभीर वर्णों में विभाजित कर दिये गये। चीनी यात्री हुए न सांग एवं यूनानी तथा अरबी इतिहास कारों के अन ुसार कालांतर में अलेकजेंडर की सेना ने मिश्र के राजाओं को अपस्त कर दिया था तो हारे हुए सैनिकों ने अफ्रीका में जाकर संकोत्रा स्थान बसाया था, इन्हें कापास कपासिया कहते थे। हूणों की जाति का यह समूह स्थाई रूप से राजस्थान से स्थापित हुआ था, गुर्जर गुरूतर इसके मुख्य तत्व थे, जो भिन्न भिन्न वर्गों में जैसे गूर्जर राजगीर जो आज भी पत्थर का काम करते हैं। गुर्जर लुहार लोहमोड़ गुर्जर द्वारपाल डंढे डयोढ़ीवान, गुर्जर वैश्य, गुर्जर–
नोट : गुर्जर मूल नाम है, इसका पर्यायवाची आभीर अहीर है ग्वाला तो यह दोनों ही हैं।
विदेशियों के भय से गुर्जर नाम हटाया गया था।
गुर्जर जाति नही संस्कृति है। आभीर इसका पर्याय है।
गुर्जर ब्राह्मण जैसे गौतम, नागर, कौशिक, विष्ठ, खंडूजी, मिश्रा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी इत्यादि औदिच्य ब्राहमण एवं गुर्जर शूद्र शिल्पकार इत्यादि में विभाजित हो गये थे यह मि. श्री संस्कृति के आर्य हूण बंट गये थे।
पश्चात 450 ईं में हूण गांधार क्षेत्र के शासक थे और यहां से इन्होंने सारे सिंधु प्रदेश केा जीत लिया था, 415 ईं के आसपास तारमाण के नेतृत्व में हूंणों ने गुप्ता से पूर्वी मालवा छीन लिया था, एरण सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाया सम्राट के शिलालेख में इस बात की पुष्टि हुई है कि तोरमाण हूंण् चंद्र भागा नदी किनारे पवय्या नगर पर भी शासन करता था। यह गुर्जर सम्राट भारतवर्ष का शासन बन गया था, यह स्थान ग्वालियर के पास था। यहां के लोगों के रीति रिवाज शादी में लेन देन आज भी उत्तरांचल के पारकी कारकी लोमोड, लुहार, पंवार, रावत, भण्डारी, आदि जो हूंणों प्रजातियां हैं से आपस में मेल खाते हैं। इसके पश्चात तोरमाण का बारिश मिहिर कुल हूंणों का राजा बना जो सदैव अपने पिता के साथ युद्घों में रहकर अपना अनुभव चढ़ाता था, ग्वालियर के सूर्य मंदिर से प्राप्त अभिलेख इस बात का प्रमाण है। उसने संपूर्ण उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करी थी। यह गुप्त सम्राटों से भी कर वसूलता था।
पश्चात श्याल कोट जो अब पाकिस्तान में है उसे अपनी राजधानी बनाया था। इस कट्टर शिव भक्त ने यशोधर्मन चावड़ा गुर्जर को हराकर राजस्थान के मंदसौर और चित्तौड़ के आसपास बहुुत से शिव मंदिर बनवाए थे। राणा चाप राणा गहलौत इनके वंशज गाडिया लुहार लोहमोड इन्होंने ही उत्तर में लोहाघाट लोहागढ़ और उडी पुंछ के पास लोहार गढ स्थान आबाद किये थे, इन्होंने विदेशी हमलावरों से सुरक्षित रहने के लिए गुर्जर शब्द हटा लिया था। यह लोग उत्तर और पूर्वी पहाड़ी क्षेत्रों में काफी संख्या में बसे हैं। यह मत एक यूनानी पर्यवेक्षक विद्वान कास्मोंस इंद्रकम्पलेस्तेस ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा करने के बाद अपनी पुस्तक क्रिष्टचियन टोपोग्राफीग्रंथ में लिखा है कि इस सम्राट की सेना विशाल घुड़सवारी और दो हजार हाथियों के साथ चलती थी। राजस्थान के हाडौत में श्री हुड्डा हूणों का राज्य रहा था।
उपरोक्त वर्णव्यवस्था अब जातियों में बदलने लगी थी सबसे पहले पश्चिमी भारत में कुछ लोगों ने कर्म व्यवस्था के अनुसार जाट संगठन बनाया, हाडौत के गुर्जर हूण भी इसमें मिल गये, परमार हूण पंवार सहलोत, चाहर इत्यादि अनेक गोत्र भी इसमें मिल गये थे। इनका सजरा आज भी गुरूतर आभीर जो अब एक जाति बन चुके थे इनके साथ है। इसके बाद राजपूत जातयां पैदा होने लगीं जैसे मैना राजपूत-रवे रया राजपूत मेंढ राजपूत लोध राजपूत, वघेल राजपूत, होल्कर राजपूत, गुर्जर राजपूत, ओड राजपूत इत्यादि भिन्न भिन्न राजपूत नाम से एक वर्ग 1840 ईं के बाद पैदा हुआ, वास्तव में पांच भाषा प्राकृत भाषा, पाली भाषा, ब्राहमी भाषा, खरोष्ठी भाषा और संस्कृत भाषाओं में तो राजपूत शब्द दही नही यह राजपूत शब्द आपातकाल में विदेशियों हमलावरों से बचने के लिए यह नाम रख लिया था। जैसे पंजाब े गुजरावाला और गूजराधार पर से जब विदेशी हमलावरों के भय से लोग अनेक प्रांतों में आकर बसे गये और उन्होंने अपना गुरूवर गुर्जर आभीर नाम बदलकर खत्री, क्षत्री और गुजरात में जाकर हाई पटेल बन गये थे। वास्तव में यह गुर्जर ही है। यह बतलाना अत्यंत आवश्यक है कि भरतीय परंपरा में आंध्र प्रदेश केरल, कर्नाटक, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, से पंजाब और जार्जिया गुजरात चेचन्या सभी 80 प्रतिशत राजघरानों की कालपात्रों शिलालेखों प्राचीन साहित्यों में राजाओं को गुर्जराफिराज गुर्जराणा, गुर्जराधिपति और गुर्जरेश्वर तथा उपनाम आश्रिर गोपा के अतिरिक्त राजपूत नाम कहीं नही मिलता है। देखें प्राचीन शिलालेख और पुराणों में इतिहास। और सभी वर्ग के क्षत्रियों के गोत्रों में 50 प्रतिशत गोत्र हूणों से प्रभावित ही हैं।
संसार में गुर्जर इतिहास पर ही बौद्घ धर्म पात्री अपनी डायरी में लिखता है कि तोरमाण एक विशाल सम्राट था, हुवेन सांग के अनुसार स्यालकोट इसकी मूलराजधानी थी इस सम्राट ने ही बौद्घ धर्म का भारतवर्ष में विनाश किया था। कोटापूंजी बूंदी एवं हाडौत में अनेक गोत्र हुडा आदि इसके वंशज हैं। जो गुर्जर जाट एवं राजपूत भी हैं। यहां इसके अनेक शिवमंदिर हैं। कोटा में शिवमंदिर परमार पंवार वंश के हूण राजा ने बनवाए थे। कर्नलटाड के अनुसार कुशक बडौली हरियाणा में भी इसके कई शिवमंदिर और अनेक वंशज हैं। मेरे अध्ययन के अनुसार गुर्जर अहीर, जाट, राजपूत, और इनकी उपजातियों कुर्मी पटेल लोहमोड, भावी मालन बिधूड़ी कापास हूंण सहलेात चाहर आदि को चौ चरण सिंह के अनुसार अजगर जाति क्षत्री वर्ग बनाकर गोत्र छोड़कर आपस में शादी विवाह करने चाहिए ताकि भारत वर्ष पुन: गुलामी से बच सके पुन: क्षत्रियों का शासन होकर भ्रष्टाचार से मिलकर लडऩे की क्षमता बने और वैचारिक क्रांति मंच की स्थापना होकर राष्ट्र समृद्घ शाली बनजावें क्योंकि आज के हालातों में जातिवाद देश के लिए घातक सिद्घ हो रहा है।
ईरान देश में पढ़ाया जाने वाला इतिहास जो ऋषि दयानंद की मान्यता के अनुसार आर्यों का उद्गम स्थान त्रिविष्ठम (तिब्बत प्रदेश है) यहीं सर्वश्रेष्ठ ऊंचे और प्रथम निर्मित पठारीय भूभाग पर मानव सरोवर मानसरोवर पर प्रथम मानव की उत्पत्ति सर्वमान्य प्रमाण है कालांतर में तिब्बत का नाम हूण प्रदेश भी था। यही श्वेत हूण। आर्य कहलाए। यही से यह लोग मैदानों की तरफ ईरान मिश्र आदि देशों की तरफ जाकर बस गये थे। जिस समय कनिष्क कुषाण सम्राट ईरान से अफगानिस्तान से संगोलिया तक एक छत्र शासन कररहा था। उस समय यह हूंण यत्र तत्र चले गये होंगे, यह बतलाना आवश्यक है कि मंगोलियन हूण श्वेत हूणों से कुछ भिन्न थे जो चीन में लूटपाट करते थे। इनके भय से चीन की दीवाल बनी थी, मुझ लेखक के गुरू स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ आर्य विद्वान सुप्रसिद्घ इतिहासकार की पुस्तक गुर्जर राष्ट्र के प्रष्ठ संख्या 26 एवं अन्य इतिहासकारों के अनुसार गुर्जरों का श्वेत हूणें से संबंध था इस भ्रांति के संदर्भ में गुरूजी का कहना यह था कि सृष्टि के आरंभ में आदित्य अंगीरा और अग्नि वायु नाम के ऋषियों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि देव पुरूषों को अपनी पाठशाला में पढ़ाया और यह पढ़कर गुरूतर एवं अभय अंधकार से परे हो गये थे और प्रकृति के बीच दैनिक कार्य करने लगे थे और मानव विकास करने लगा था। कालांतर में घनी आबादी को वर्ण विभाग में बांटने की आवश्यकता हुई और गुण कमीनुसार यह गुरूतर आभीर वर्णों में विभाजित कर दिये गये। चीनी यात्री हुए न सांग एवं यूनानी तथा अरबी इतिहास कारों के अन ुसार कालांतर में अलेकजेंडर की सेना ने मिश्र के राजाओं को अपस्त कर दिया था तो हारे हुए सैनिकों ने अफ्रीका में जाकर संकोत्रा स्थान बसाया था, इन्हें कापास कपासिया कहते थे। हूणों की जाति का यह समूह स्थाई रूप से राजस्थान से स्थापित हुआ था, गुर्जर गुरूतर इसके मुख्य तत्व थे, जो भिन्न भिन्न वर्गों में जैसे गूर्जर राजगीर जो आज भी पत्थर का काम करते हैं। गुर्जर लुहार लोहमोड़ गुर्जर द्वारपाल डंढे डयोढ़ीवान, गुर्जर वैश्य, गुर्जर–
नोट : गुर्जर मूल नाम है, इसका पर्यायवाची आभीर अहीर है ग्वाला तो यह दोनों ही हैं।
विदेशियों के भय से गुर्जर नाम हटाया गया था।
गुर्जर जाति नही संस्कृति है। आभीर इसका पर्याय है।
गुर्जर ब्राह्मण जैसे गौतम, नागर, कौशिक, विष्ठ, खंडूजी, मिश्रा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी इत्यादि औदिच्य ब्राहमण एवं गुर्जर शूद्र शिल्पकार इत्यादि में विभाजित हो गये थे यह मि. श्री संस्कृति के आर्य हूण बंट गये थे।
पश्चात 450 ईं में हूण गांधार क्षेत्र के शासक थे और यहां से इन्होंने सारे सिंधु प्रदेश केा जीत लिया था, 415 ईं के आसपास तारमाण के नेतृत्व में हूंणों ने गुप्ता से पूर्वी मालवा छीन लिया था, एरण सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाया सम्राट के शिलालेख में इस बात की पुष्टि हुई है कि तोरमाण हूंण् चंद्र भागा नदी किनारे पवय्या नगर पर भी शासन करता था। यह गुर्जर सम्राट भारतवर्ष का शासन बन गया था, यह स्थान ग्वालियर के पास था। यहां के लोगों के रीति रिवाज शादी में लेन देन आज भी उत्तरांचल के पारकी कारकी लोमोड, लुहार, पंवार, रावत, भण्डारी, आदि जो हूंणों प्रजातियां हैं से आपस में मेल खाते हैं। इसके पश्चात तोरमाण का बारिश मिहिर कुल हूंणों का राजा बना जो सदैव अपने पिता के साथ युद्घों में रहकर अपना अनुभव चढ़ाता था, ग्वालियर के सूर्य मंदिर से प्राप्त अभिलेख इस बात का प्रमाण है। उसने संपूर्ण उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करी थी। यह गुप्त सम्राटों से भी कर वसूलता था।
पश्चात श्याल कोट जो अब पाकिस्तान में है उसे अपनी राजधानी बनाया था। इस कट्टर शिव भक्त ने यशोधर्मन चावड़ा गुर्जर को हराकर राजस्थान के मंदसौर और चित्तौड़ के आसपास बहुुत से शिव मंदिर बनवाए थे। राणा चाप राणा गहलौत इनके वंशज गाडिया लुहार लोहमोड इन्होंने ही उत्तर में लोहाघाट लोहागढ़ और उडी पुंछ के पास लोहार गढ स्थान आबाद किये थे, इन्होंने विदेशी हमलावरों से सुरक्षित रहने के लिए गुर्जर शब्द हटा लिया था। यह लोग उत्तर और पूर्वी पहाड़ी क्षेत्रों में काफी संख्या में बसे हैं। यह मत एक यूनानी पर्यवेक्षक विद्वान कास्मोंस इंद्रकम्पलेस्तेस ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा करने के बाद अपनी पुस्तक क्रिष्टचियन टोपोग्राफीग्रंथ में लिखा है कि इस सम्राट की सेना विशाल घुड़सवारी और दो हजार हाथियों के साथ चलती थी। राजस्थान के हाडौत में श्री हुड्डा हूणों का राज्य रहा था।
उपरोक्त वर्णव्यवस्था अब जातियों में बदलने लगी थी सबसे पहले पश्चिमी भारत में कुछ लोगों ने कर्म व्यवस्था के अनुसार जाट संगठन बनाया, हाडौत के गुर्जर हूण भी इसमें मिल गये, परमार हूण पंवार सहलोत, चाहर इत्यादि अनेक गोत्र भी इसमें मिल गये थे। इनका सजरा आज भी गुरूतर आभीर जो अब एक जाति बन चुके थे इनके साथ है। इसके बाद राजपूत जातयां पैदा होने लगीं जैसे मैना राजपूत-रवे रया राजपूत मेंढ राजपूत लोध राजपूत, वघेल राजपूत, होल्कर राजपूत, गुर्जर राजपूत, ओड राजपूत इत्यादि भिन्न भिन्न राजपूत नाम से एक वर्ग 1840 ईं के बाद पैदा हुआ, वास्तव में पांच भाषा प्राकृत भाषा, पाली भाषा, ब्राहमी भाषा, खरोष्ठी भाषा और संस्कृत भाषाओं में तो राजपूत शब्द दही नही यह राजपूत शब्द आपातकाल में विदेशियों हमलावरों से बचने के लिए यह नाम रख लिया था। जैसे पंजाब े गुजरावाला और गूजराधार पर से जब विदेशी हमलावरों के भय से लोग अनेक प्रांतों में आकर बसे गये और उन्होंने अपना गुरूवर गुर्जर आभीर नाम बदलकर खत्री, क्षत्री और गुजरात में जाकर हाई पटेल बन गये थे। वास्तव में यह गुर्जर ही है। यह बतलाना अत्यंत आवश्यक है कि भरतीय परंपरा में आंध्र प्रदेश केरल, कर्नाटक, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, से पंजाब और जार्जिया गुजरात चेचन्या सभी 80 प्रतिशत राजघरानों की कालपात्रों शिलालेखों प्राचीन साहित्यों में राजाओं को गुर्जराफिराज गुर्जराणा, गुर्जराधिपति और गुर्जरेश्वर तथा उपनाम आश्रिर गोपा के अतिरिक्त राजपूत नाम कहीं नही मिलता है। देखें प्राचीन शिलालेख और पुराणों में इतिहास। और सभी वर्ग के क्षत्रियों के गोत्रों में 50 प्रतिशत गोत्र हूणों से प्रभावित ही हैं।
संसार में गुर्जर इतिहास पर ही बौद्घ धर्म पात्री अपनी डायरी में लिखता है कि तोरमाण एक विशाल सम्राट था, हुवेन सांग के अनुसार स्यालकोट इसकी मूलराजधानी थी इस सम्राट ने ही बौद्घ धर्म का भारतवर्ष में विनाश किया था। कोटापूंजी बूंदी एवं हाडौत में अनेक गोत्र हुडा आदि इसके वंशज हैं। जो गुर्जर जाट एवं राजपूत भी हैं। यहां इसके अनेक शिवमंदिर हैं। कोटा में शिवमंदिर परमार पंवार वंश के हूण राजा ने बनवाए थे। कर्नलटाड के अनुसार कुशक बडौली हरियाणा में भी इसके कई शिवमंदिर और अनेक वंशज हैं। मेरे अध्ययन के अनुसार गुर्जर अहीर, जाट, राजपूत, और इनकी उपजातियों कुर्मी पटेल लोहमोड, भावी मालन बिधूड़ी कापास हूंण सहलेात चाहर आदि को चौ चरण सिंह के अनुसार अजगर जाति क्षत्री वर्ग बनाकर गोत्र छोड़कर आपस में शादी विवाह करने चाहिए ताकि भारत वर्ष पुन: गुलामी से बच सके पुन: क्षत्रियों का शासन होकर भ्रष्टाचार से मिलकर लडऩे की क्षमता बने और वैचारिक क्रांति मंच की स्थापना होकर राष्ट्र समृद्घ शाली बनजावें क्योंकि आज के हालातों में जातिवाद देश के लिए घातक सिद्घ हो रहा है।
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